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    Rashtriya Kisan Manch
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    ग्राम

    सितम्बर माह में उगाई जाने वाली सब्जिया

    1) शिमला मिर्च
    सितम्बर माह शुरू होने से पहले ही शिमला मिर्च की नर्सरी तैयार कर ली जाती है और समय से इसको लगाना शुरू कर दें चाहिए। इसके बीज भी उत्तम कोटि के होने चाहिए और रोग रोधी हो। बीज लगाते समय ध्यान रखें कि बीज लगाने के बाद जब दोबारा उसका रोपण करे तो उस समय उसकी जड़ को शोधन ज़रूर करें। शिमला मिर्च का बीज जब भी लगाए तो कोशिश करे की २-३ दिन पहले भूमि का भी शोधन कर ले और सही तरीके से जुताई कर ले । इससे आप का उत्पादन काफी बेहतर होगा और आप को अच्छा भाव भी मिलेगा।

    2) पत्तागोभी
    पत्तागोभी भी एक ऐसी सब्जी है जिसकी सितम्बर माह में नर्सरी तैयार की जा सकती है । पत्ता गोभी में वैसे तो ज्यादा रोग लगने की संभावना नहीं होती परन्तु पत्ता गोभी में गलने की व कीट की समस्या हो सकती है और इन समस्याओं को दूर करने के लिए आप ऑर्गेनिक तरीकों का प्रयोग कर सकते है।

    3) धनिया पत्ता
    धनिया को भी सितंबर महीने में लगाया जाता है बारिश के कारण धनिया में अंकुरण की समस्या हो सकती है। धनिया उगाने के लिए खेत ऊंचाई पर होना चाहिए ताकि पानी ना लग सके तथा धनिया को क्यारियों में लगाया जाता है, ताकि निकासी व्यवस्था भी की जा सकें। धनिया में सीमित मात्रा में केमिकल का प्रयोग करें। अगर अधिक केमिकल का प्रयोग किया जाएगा तो फसल खराब या फिर फसल को नुकसान हो सकता है।

    4) फूलगोभी
    सर्दियों में खायी जाने वाली सब्जियों में से सर्व पसंदीदा सब्जी फूल गोभी है, जिसे सितम्बर माह में उगाया जाता है। फूलगोभी को उगाने से पहले उन्नत और उत्तम किस्म के बीज का चयन कर लेना चाहिए, इसके दो फायदे है एक तो फसल की उपज अच्छी रहेगी, दूसरा फसल में ज्यादा रोग नहीं लगेंगे
    फूलगोभी की फसल में न केवल पौधे को बल्कि भूमि को भी शोधित करना आवश्यक है, इसके लिए जैविक (आर्गेनिक) कीटनाशक बनाए और उसका छिड़काव करें। जिससे आप अच्छा लाभ ले सकें।

    5) बैंगन
    बैंगन की खेती करना बेहद आसान हैं। इसके लिए सही बीजों का चयन करना काफी आवश्यक होता है। कई लोगों ने नर्सरी भी लगा ली है तथा इसकी जड़ का सही तरीके से शोधन करना काफी आवश्यक है। ऑर्गेनिक कीटनाशक के प्रयोग से काफी हद तक फसल को रोग से बचाया जा सकता है।

    6) बैंगन
    पालक साग आदि सब्जियों की खेती भी सितंबर महीने में की जाती हैं। पालक की बुवाई करते समय ध्यान रखें उसमें जल निकासी की व्यवस्था हो। पालक से भी काफी आमदनी हो सकती है बशर्ते बारिश से पालक को बचाया जा सके।

    7) पपीता
    सितंबर में उगाई जाने वाली सब्जियां में एक पपीता भी हैं।पपीता में वायरस की समस्या हो सकती है लेकिन इसको नीम का तेल प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है। पपीता लगाते समय एक-एक पपीते के बीच की दूरी का ध्यान जरूर रखें और यदि पपीता बेड पर लगाते हो काफी अच्छी फसल देखने को मिल सकती है।
    8) हरी मिर्च
    हरी मिर्च की फसल के लिए दो बाते आवश्यक है, पहली ये की हरी मिर्च का बीज रोग रोधी हो और बीज की बुआई करें तो पानी निकासी का इंतजाम पहले ही ज़रूर कर लें। हरी मिर्च की नर्सरी डालने के बाद जब रिप्लांट करें तो पहले भूमि शोधन अवश्य करें और खाद का बहुत ही सीमित मात्रा में प्रयोग करें नहीं तो आपको नुकसान भी सहना पड़ सकता हैं।
    9) मूली
    मूली को बोने के लिए अगर ऊंचाई वाला खेत है तो काफी बढ़िया है और यदि खेत ऊंचाई पर नहीं है तो इसे बेड पर भी लगा सकते हो। खेत की अच्छे ढंग से जुताई होनी चाहिए। जितनी अच्छी भुरभुरी मिट्टी होगी उतनी ही अच्छी आपको पैदावार मिलेगी।

    10) ब्रोकली
    ब्रोकली सब्जी ह्रदय के लिए बहुत ही फायदेमंद सब्जी है, इसकी गुणवत्ता के कारण इसका भाव १०० रूपए से लेकर २०० रूपए किलो तक रहता है। ब्रोकोली उगाने के लिए उसके बीज से नर्सरी डाल लीजिए और उसके बाद उस की रोपाई शुरू करें।

    11) मटर
    मैदानी भागों में तो मटर को अक्टूबर महीने में बोया जाता है लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में मटर की बुआई सितंबर महीने में शुरू हो जाती है। बीज लाने के बाद इसको शोधन करना काफी आवश्यक है इसमें जर्मीनेशन का ध्यान रखेंगे तो फसल भी अच्छी होगी और आपको काफी ज्यादा लाभ भी देखने को मिलेगा।
    12) गाजर/चुकंदर/शलगम
    पहाड़ी इलाकों में गाजर चुकंदर व शलगम की खेती सितंबर महीने में कर सकते है, इसके लिए खेत को अच्छे ढंग से तैयार कीजिये ताकि फसल को किसी भी तरह का नुकसान ना हो। चुकंदर शलगम गाजर इन तीनों में ही लागत काफी कम लगती है और फायदा अधिक होता है।

    August 26, 2021
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    अलसी की उन्नतशील फसल

    अलसी एक तिलहनी और रेशे वाली फसल है जिसका उत्पादन मुख्य रूप से २ कारणों से किया जाता है, पहला तेल के लिए और दूसरा रेशे के लिए I अलसी के तेल का उपयोग खाने के, औषधीय और औधोगिक उपयोग के लिए किया जाता है I इसकी खली पोषक तत्वों से पूर्ण होती है जिसे पशुओ को खिलाने और खेतो में उर्वरक के रूप में भी किया जाता है I भारत में अलसी की खेती मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में की जाती है I
    खेत की तैयारी - खरीफ की फसल काटने के बाद मिटटी को अलट पलट करने के लिए एक जुताई करे, तत्पश्चात कल्टीवेटर या देशी हल से 2 बार जुताई करके खेत को अच्छी तरह तैयार करे I अलसी की खेती के लिए मटियार व् चिकनी दोमट भूमि में की जा सकती है I
    बुवाई का समय एवं विधि - अक्टूबर माह के किसी भी समय अलसी को बोया जा सकता है I इसका बीज २५-३० कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर कि दर से बोया जाता है I इसकी बुवाई में बीजो के बीच कम से कम २५ से.मि का अंतराल होना चाहिए I
    उर्वरक - असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी पैदावार के लिए नाइट्रोजन 50 कि. ग्रा., फॉस्फोरस 40 कि. ग्रा.तथा पोटाश 40 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर इस्तेमाल कीजिये और सिंचित क्षेत्र के लिए नाइट्रोजन 100 कि. ग्रा., फॉस्फोरस 60 कि. ग्रा.तथा पोटाश 40 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर इस्तेमाल करना चाहिए I
    सिंचाई - यह फसल असिंचित रूप से बोई जाती है, परन्तु जहा सिंचाई का साधन उपलब्ध है वह दो सिंचाई ही काफी है क्योंकि यह फसल कम पानी से भी अच्छी पैदावार देती है I पहली सिंचाई फूल आने पर या बुवाई से 30-40 दिन बाद तथा दूसरी दाना बनते समय करनी चाहिए I
    फसल का बचाव - असली की फसल में कई प्रकार के रोग और कीट लग जाते है, जैसे अल्टेरनेरिया झुलसा, रतुआ, उकठा रोग, बुकनी गालमीज, ग्रेसी कटवर्म प्रमुख है I गर्मी की जुताई से गालमीज की सूड़िया मर जाती है, बीज को 2.5 ग्रा. थाइरम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से शोधित करके प्रयोग में ले, अलसी के साथ चना, सरसो, कुसुम को साथ बोया जाए तो गालमीज का प्रकोप कम हो जाता है I कालिया बनने लगे तब समय समय पर फसल का परिक्षण करते रहना चाहिए I खडी फसल में मेंकोजेब 2.5 कि.ग्रा. / हेक्टेयर कि दर से 40-45 दिन पर छिड़काव करके इन रोगो से बचा जा सकता है I
    अलसी की कटाई - फसल जब 130-140 दिन कि परिपक्वा हो जाती है, पौधे और फलिया पीली होने लगती है और पत्तिया सूखने लगती है तब समझना चाहिए कि फसल की कटाई का समय आ गया है I यदि सही तकनीक से फसल कि कटाई की जाये तो लगभग 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज प्राप्त हो जाता है I

    July 17, 2021
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    मिट्टी की जांच या मृदा परीक्षण

    खेत की मिट्टी का सीधा प्रभाव फसल की पैदावार से होता है, गुणवत्तापूर्ण उपज और अधिक पैदावार के लिए मिट्टी में कौन कौन से तत्व होने चाहिए इसकी जानकारी होना जरूरी है। मिट्टी में लम्बे अरसे से रासायनिक पदार्थों और कीटनाशकों के प्रयोग होने के कारण खेत की मिट्टी की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है। किसी भी फसल से उन्नत उपज लेने के लिए ये जानना जरूरी हैं कि उसे जिस मिट्टी के लगाया जा रहा है. उसमें उसके विकास के लिए पोषक तत्व मौजूद हैं या नही। मृदा परीक्षण यानि मिट्टी की जांच करा कर किसान अपने खेत की मिट्टी की सही सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी की जांच में भूमि के अम्लीय और क्षारीय गुणों की जांच की जाती है, ताकि पीएच मान के आधार पर उचित फसल को उगाया जा सके. और भूमि सुधार किया जा सके। मिट्टी की जाँच से किसान भाई अपने खेत की मिट्टी की गुणवत्ता जानकार उसमे उसी के उपयुक्त फसल लगा कर कम खर्च में अधिक उपज प्राप्त कर सकते है।
    मिट्टी की जांच क्यों आवश्यक है
    मिट्टी की जांच कराने के बाद मिट्टी में मौजूद कमियों को सुधारकर उसे फिर से उपजाऊ बनाने के लिए। मिट्टी परिक्षण करवाकर उर्वरकों और रसायनों पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बच सकता है। जैविक खेती करने वाले किसान भाई मिट्टी की जांच कराकर मिट्टी के जैविक गुणों का पता लगा सकते हैं. और उसी के आधार पर जैविक पोषक तत्वों का इस्तेमाल पूरी तरह से जैविक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी में कई पोषक तत्व होते हैं जैसे कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश , कैल्सिशयम, मैग्नीशियम और सूक्ष्म तत्वों जैसे जस्ता , मैग्नीज, तांबा, लौह, बोरोन, मोलिबडेनम और क्लोरीन इत्यादि अगर इन सबकी मौजूदगी मिट्टी में संतुलित रूप में रहती है तो इससे अच्छी पैदावार प्राप्त होती है। मिट्टी में इन तत्वों की कमी के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम होने लगती है।
    मिट्टी जांच के फायदे
    सघन खेती के कारण खेत की मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी समय समय पर मिलती रहती है। मिट्टी में विभिन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता की दशा का ज्ञान हो जाता है। बोयी जाने वाली फसल के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। संतुलित उर्वरक प्रबन्ध द्वारा अधिक लाभ कमा सकते है।
    मिट्टी जांच कब करानी चाहिए
    मिट्टी की जांच के समय ध्यान देना चाहिए की भूमि में नमी की मात्रा कम से कम हो। फसल की बुवाई या रोपाई से एक महीना पहले खेत की मिट्टी की जांच कराएं। अगर आप सघन पद्धति से खेती करते हैं तो हर वर्ष मिट्टी की जांच करवानी चाहिए। यदि खेत में वर्ष में एक फसल की खेती की जाती है तो हर 2 या 3 साल में मिट्टी की जांच करा लें।
    मिट्टी की जांच कैसे करे
    एक एकड़ क्षेत्र में लगभग 8-10 स्थानों से ‘V’ आकार के 6 इंच गहरे गहरे गढ्ढे बनायें। एक खेत के सभी स्थानों से प्राप्त मिट्टी को एक साथ मिलाकर ½ किलोग्राम का एक नमूना बनायें। नमूने की मिट्टी से कंकड़, घास इत्यादि अलग करें। सूखे हुए नमूने को कपड़े की थैली में भरकर कृषक का नाम, पता, खसरा संख्या, मोबाइल नम्बर, आधार संख्या, उगाई जाने वाली फसलों आदि का ब्यौरा दें। नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें अथवा’ ‘परख’ मृदा परीक्षण किट द्वारा स्वयं परीक्षण करें।

    July 16, 2021
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    ग्राम तकनीक

    तवैदार हैरो

    इस यंत्र के उपयोग से बीज के अच्छे अंकुरण के लिए भूमि में सुधार, कीटों एवं इनके रहने के स्थानों को आसानी से नष्ट किया जा सकता है। यह घास-फूस तथा खरपतवपार वाली भूमि के लिए अत्यंत उपयोगी यंत्र है। गेहूं की बुवाई के लिए खेत तैयार करने में इस यंत्र का उपयोग अत्यंत ही लाभदायक है। इसकी कार्यक्षमता एक दिन में 4 से 5 हैक्टेयर है।

    April 15, 2021
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    गेहूं के कटाई के लिए उपकरण

    किसान और सरकार चाहते हैं कि देशभर में फसलों की पैदावार और उनकी गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी हो, क्योंकि इससे किसान और सरकार, दोनों को लाभ होगा !मगर यह तभी संभव हो पाएगा, जब फसल उत्पादन का काम कम लागत में संपन्न हो!इसका एक मात्र विकल्प यह है कि आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग किया जाए, ताकि समय, श्रम और लागत की बचत हो पाए ! इससे किसानों को अच्छा मुनाफा भी मिल सकेगा! ऐसे में आज हम ऐसे आधुनिक 2 कृषि यंत्रों के बारे में बताएंगे, जो कि गेहूं की कटाई को आसान बना देते हैं!

    ट्रैक्टर चलित रीपर बाइंडर:

    यह मशीन किसानों के लिए बहुत उपयोगी है! इसमें भी कटर बार से पौधे कटे जाते हैं फिर पुलों में बंध  जाते हैं! इसके बाद संचरण प्रणाली द्वारा एक और गिरा दिया जाता है !खास बात यह है कि इस मशीन की मदद से कटाई और बंधाई का कार्य बहुत सफाई से होता है!

    स्वचालित वर्टिकल कनवेयर रीपर:

    छोटे और मध्यम किसानों के लिए गेहूं की कटाई करने के लिए यह बहुत उपयोगी मशीन है! इस मशीन में आगे की ओर एक कट्टर बार लगी होती है, तो वहीं पीछे संचरण प्रणाली लगी होती हैं!इसके साथ ही रीपर में लगभग 5 हॉर्स पावर का एक डीजल इंजन लगा होता है, जो कि पहियों और कटर बार के लिए शक्ति संचरण का कार्य करता है

    कैसे करते हैं गेहूं की कटाई:

    किसान को फसल कटाई के लिए कटर बार को आगे रखकर हैंडिल से पकडक़र पीछे चलना होता है. कटर बार गेहूं के पौधों को काटती हैं. इसके साथ ही संचरण प्रणाली द्वारा पौधे एक लाइन में बिछा दिए जाते हैं, जिनको श्रमिकों द्वारा इकट्ठा कर लिया जाता है.

    March 26, 2021
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    मोटर संचालित क्राप कटर मशीन

    कृषि में जहाँ किसान पहले वर्ष में एक या दो फसल ले पाते थे वही अब कृषि यंत्रों की मदद से कम समय में कृषि कार्यों को पूर्ण करके तीन फसलें लेने लगे हैं | कृषि यंत्र से जहाँ कम समय में कार्य पूर्ण हो जाते हैं वही इससे फसल उत्पदान की लागत भी कम होती है खासकर छोटे कृषि यंत्रों से | भारत में छोटे एवं मध्यवर्गीय किसानों के लिए छोटे कृषि यंत्रों को विकसित किया जा रहा है | सरकार द्वारा इनके उपयोग को बढ़ावा भी दिया जा रहा है जिसके लिए सरकार द्वारा इन कृषि यंत्रों पर सब्सिडी भी दी जाती है | छोटे किसानों के बीच इन छोटे कृषि उपकरणों को लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है, जिससे कृषि श्रमिकों और किराए की मशीनों पर उनकी निर्भरता कम की जा सके | किसान समाधान गेहूं कटाई के समय को देखते हुए कटाई के लिए उपयुक्त मोटर संचालित क्रॉप कटर की जानकारी लेकर आया है |

    मोटर संचालित क्राप कटर:

    क्राप कटर मशीन पके हुए गेहूं को जमीन से लगभग 15 से 20 से.मी. की ऊँचाई से काट सकती है | क्रॉप कटर से काटने की चोडाई 255 सेमी तक होती है वहीँ इसमें 48 से 50 सीसी की शक्ति से चल सकती है | इसका बजन 8 किलो से लेकर 10 किलोग्राम तक होता है | यह पेट्रोल से चलने वाला यंत्र है जिसमें एक बार में 1.2 लीटर पेट्रोल तक भरा जा सकता है | मशीन में एक गोलाकार आरा ब्लेड, विंडरोइंग सिस्टम, सेफ्टी कवर, कवर के साथ ड्राइव शाफ़्ट, हैंडल, ऑपरेटर के लिए हैगिंग बैंड पेट्रोल टैंक, स्टार्टर नांब , चोक लीवर और एयर क्लीनर होते हैं | ब्लेड, इंजन द्वारा संचालित एक लंबी ड्राइव शाफ़्ट के माध्यम से घूमता है | 25 से.मी. की ऊँचाई और 12 से.मी. के ब्लेड त्रिज्या के बराबर आधे बेलन के आकार की एक एलुमिनियम शीट को काटने वाले ब्लेड के उपरी भाग में फिट किया जाता है | फसलों को इकट्ठा करने में आसानी के लिए एक समान पंक्ति बनाने के लिए एक गार्ड लगाया जाता है |

    क्राप कटर मशीन में ब्लेड का उपयोग फसल के अनुसार करें :

    मोटर संचालित क्राप कटर मशीन में ब्लेड का उपयोग फसल के पौधे के अनुसार किया जा सकता है | ज्यादा दांत वाले ब्लेड का उपयोग मोटे तथा कड़क पौधे की कटाई के लिए किया जाता है तथा कम दांत वाले ब्लेड का उपयोग मुलायम तथा पतले पौधे के लिए किया जाता है |

    दांतों की संख्या तथा उसका उपयोग :

    120 दांत वाले ब्लेड का उपयोग – 120 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग गेहूं, मक्का आदि फसलों की कटाई के लिए किया जाता है | 60 और 80 दंतों वाले ब्लेड का उपयोग – 60 तथा 80 दानों वाले ब्लेड का उपयोग चारा काटने के लिए किया जाता है | 40 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग – 40 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग 2 इंच मोती वाले पौधे को काटने के लिए किया जाता है |

    March 26, 2021
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    ग्राम शिक्षा

    इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम (Integrated Farming System)

    आजकल पारम्परिक खेती को लेकर एक धारणा बन गयी है कि इससे मुनाफा मिलता कठिन होता है और यही कारण है कि कई किसान किसानी छोड़ कर किसी और व्यवसाय कि तरफ रुख कर रहे है I
    परन्तु वही कुछ किसान ऐसे भी है जो नयी नयी खेती की तकनीक को अपना कर दिन दुगनी रात चौगुनी कमाई कर रहे है, ऐसी ही एक तकनीक का नाम है इंटीग्रेटेड फार्मिंग या एकीकृत कृषि प्रणाली I
    आइये जानते है क्या है इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम?
    इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम यानी एकीकृत कृषि प्रणाली का महत्त्व छोटे और सीमांत किसानों के लिए ज्यादा है हालाँकि बड़े किसान भी इस प्रणाली की अपनाकर खेती से मुनाफा कमा सकते हैंI एकीकृत कृषि प्रणाली का मुख्य उदेश्य खेती की जमीन के हर हिस्से का पूर्ण रूप से इस्तेमाल करना हैI इसके तहत आप एक ही साथ अलग-अलग फसल, फूल, सब्जी, मवेशी पालन, फल उत्पादन, मधुमक्खी पालन, मछली पालन इत्यादि कर सकते हैं I इससे आप अपने संसाधनों का पूरा इस्तेमाल कर पाएंगे और लागत में कमी आएगी फलस्वरूप उत्पादकता बढ़ेगी I एकीकृत कृषि प्रणाली न केवल पर्यावरण के लिए अनुकूल है बल्कि यह खेत की उर्वरक शक्ति को भी बढ़ाती हैI
    इंटीग्रेटेड फार्मिंग का एक बहुत ही बेहतरीन उदाहरण आपके लिए प्रस्तुत है I
    उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज 90 किलोमीटर दूर सीतापुर जिला राष्ट्रीय राज्यमार्ग के किनारे जिला कृषि उपनिदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने अपने कार्यालय में खाली पड़ी जमीन पर आधुनिक विधि से एक एकड़ में मौडल तैयार किया है I
    इस एक एकड़ के मौडल में मछलीपालन, बत्तखपालन, मुरगीपालन के साथसाथ फलदार पौधों की नर्सरी तैयार करवाई गयी है I श्री अरविंद मोहन मिश्र बताते हैं कि उन्होंने एक बीघा जमीन में तालाब की खुदाई करवाई है, तालाब में ग्रास कौर्प मछली डाल रखी हैं, इतनी मछली से सालभर में करीब एक से डेढ़ लाख रुपए की कमाई हो जाती है I इस के बाद तालाब के ऊपर मचान बना कर उस में पोल्ट्री फार्म बनाया है, जिस में कड़कनाथ सहित अन्य देशी मुर्गा - मुर्गी पाल रखे हैं I जो दाना मुर्गियों को दिया जाता हैं, उस का जो शेष भाग बचता है, वह मचान से नीचे गिरता रहता है और उसे नीचे तालाब की मछलिया खा लेती है जिससे मछलियों के दाने की बचत हो जाती है I
    2 बीघा जमीन पर ढैंचा की बुआई कर रखी है जिससे हरी खाद बनेगी और उस के बाद इस की जुताई करा के इस में शुगर फ्री धान की रोपाई कर देंगे I मिश्र जी ने यह भी बताया कि २ बीघे में गन्ने की पैदावार की गयी है जिससे तकरीबन 200 से 250 क्विंटल गन्ने की पैदावार लेते हैं, साथ ही, गन्ने में बीचबीच में अगेती भिंडी फसल बो रखी है, जिस से 30 से 40 हजार रुपए का मुनाफा होता है I सहफसली से एक और फायदा है कि जो छिड़काव या खाद हम एक फसल में देते हैं, उस का लाभ सहफसली को भी मिल जाता है I
    जिला उपकृषि निदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने कहा कि पायलट प्रोजैक्ट के तौर पर यह मॉडल सीतापुर जिले में 10 किसानों के लिए और बनवाया जाएगा I इस मॉडल की मंजूरी के लिए शासन से भी बातचीत चल रही है I
    आजकल कृषि में लागत वृद्धि होने का एक कारण यह भी है कि किसान अधिक उत्पादन के चक्कर में खेती में रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहे हैं, वो भी बिना किसी मापदंड के I इस को कम करने के लिए किसान खुद देशी विधि जैसे वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल कर या गाय का गोबर और गौमूत्र से जीवामृत बना कर छिड़काव करें, इससे कृषि लागत में कमी लायी आज सकती है I
    किसान यदि ठान ले तो भारतीय खेती व् नवीनतम कृषि तकनीक के जरिये वो अपनी आमदनी भी बढ़ा सकता है और कृषि उत्पाद की गुणवत्ता भी कायम रख सकता है I

    August 26, 2021
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    मिट्टी की जांच या मृदा परीक्षण

    खेत की मिट्टी का सीधा प्रभाव फसल की पैदावार से होता है, गुणवत्तापूर्ण उपज और अधिक पैदावार के लिए मिट्टी में कौन कौन से तत्व होने चाहिए इसकी जानकारी होना जरूरी है। मिट्टी में लम्बे अरसे से रासायनिक पदार्थों और कीटनाशकों के प्रयोग होने के कारण खेत की मिट्टी की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है। किसी भी फसल से उन्नत उपज लेने के लिए ये जानना जरूरी हैं कि उसे जिस मिट्टी के लगाया जा रहा है. उसमें उसके विकास के लिए पोषक तत्व मौजूद हैं या नही। मृदा परीक्षण यानि मिट्टी की जांच करा कर किसान अपने खेत की मिट्टी की सही सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी की जांच में भूमि के अम्लीय और क्षारीय गुणों की जांच की जाती है, ताकि पीएच मान के आधार पर उचित फसल को उगाया जा सके. और भूमि सुधार किया जा सके। मिट्टी की जाँच से किसान भाई अपने खेत की मिट्टी की गुणवत्ता जानकार उसमे उसी के उपयुक्त फसल लगा कर कम खर्च में अधिक उपज प्राप्त कर सकते है।
    मिट्टी की जांच क्यों आवश्यक है
    मिट्टी की जांच कराने के बाद मिट्टी में मौजूद कमियों को सुधारकर उसे फिर से उपजाऊ बनाने के लिए। मिट्टी परिक्षण करवाकर उर्वरकों और रसायनों पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बच सकता है। जैविक खेती करने वाले किसान भाई मिट्टी की जांच कराकर मिट्टी के जैविक गुणों का पता लगा सकते हैं. और उसी के आधार पर जैविक पोषक तत्वों का इस्तेमाल पूरी तरह से जैविक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी में कई पोषक तत्व होते हैं जैसे कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश , कैल्सिशयम, मैग्नीशियम और सूक्ष्म तत्वों जैसे जस्ता , मैग्नीज, तांबा, लौह, बोरोन, मोलिबडेनम और क्लोरीन इत्यादि अगर इन सबकी मौजूदगी मिट्टी में संतुलित रूप में रहती है तो इससे अच्छी पैदावार प्राप्त होती है। मिट्टी में इन तत्वों की कमी के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम होने लगती है।
    मिट्टी जांच के फायदे
    सघन खेती के कारण खेत की मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी समय समय पर मिलती रहती है। मिट्टी में विभिन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता की दशा का ज्ञान हो जाता है। बोयी जाने वाली फसल के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। संतुलित उर्वरक प्रबन्ध द्वारा अधिक लाभ कमा सकते है।
    मिट्टी जांच कब करानी चाहिए
    मिट्टी की जांच के समय ध्यान देना चाहिए की भूमि में नमी की मात्रा कम से कम हो। फसल की बुवाई या रोपाई से एक महीना पहले खेत की मिट्टी की जांच कराएं। अगर आप सघन पद्धति से खेती करते हैं तो हर वर्ष मिट्टी की जांच करवानी चाहिए। यदि खेत में वर्ष में एक फसल की खेती की जाती है तो हर 2 या 3 साल में मिट्टी की जांच करा लें।
    मिट्टी की जांच कैसे करे
    एक एकड़ क्षेत्र में लगभग 8-10 स्थानों से ‘V’ आकार के 6 इंच गहरे गहरे गढ्ढे बनायें। एक खेत के सभी स्थानों से प्राप्त मिट्टी को एक साथ मिलाकर ½ किलोग्राम का एक नमूना बनायें। नमूने की मिट्टी से कंकड़, घास इत्यादि अलग करें। सूखे हुए नमूने को कपड़े की थैली में भरकर कृषक का नाम, पता, खसरा संख्या, मोबाइल नम्बर, आधार संख्या, उगाई जाने वाली फसलों आदि का ब्यौरा दें। नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें अथवा’ ‘परख’ मृदा परीक्षण किट द्वारा स्वयं परीक्षण करें।

    July 16, 2021
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    बीज उपचार से जुडी मुख्य जानकारी

    बीज पौधे का वह भाग होता है जिसमें पौधों के प्रजनन की क्षमता होती है और जो मृदा के सम्पर्क में आने पर अपने जैसा ही एक नये पौधे को जन्म देता है। बीज फसल के दाने का पूर्ण या आधा भाग भी हो सकता है।
    यह बात बताने की जरुरत नहीं है की एक सफल, गुणवत्तापूर्वक, लहराती उपज के लिए उच्च कोटि का रोग रहित, स्वस्थ और उन्नत बीज की आवश्यकता होती है | बीज को निरोग और स्वस्थ बनाने के लिए बीज उपचार किया जाता है जिसमे बीज को अनुशंसित रसायन या जैव रसायन से उपचारित करना होता है | बीज उपचार से बीज में उपस्थित आन्तरिक या वाह्य रोगजनक जैसे फफूंद, जीवाणु, विषाणु एवं सूत्रकृमि और कीट नष्ट हो जाते है और बीजों का स्वस्थ अंकूरण तथा अंकुरित बीजों का स्वस्थ विकास होता है | साथ ही पोषक तत्व स्थिरीकरण हेतु जीवाणु कलचर से भी बीज उपचार किया जाता है| बीज उपचार की सभी पहलुओं की जानकारी नीचे उपलब्ध है|
    बीज उपचार का महत्त्व इसलिए भी है की यह प्रारंभ में ही बीज जनित रोगों और कीटों का प्रभाव न्यून या रोकने में मददगार है| यदि पौधों की वृद्धि के बाद इनको रोकने का प्रयास किया जाये तो इससे अधिक खर्च भी होगा और क्षति भी अधिक होगी| बीजों में अंदर और बाहर रोगों के रोगाणु सुशुप्ता अवस्था में, मिट्टी में और हवा में मौजूद रहते हैं| ये अनुकूल वातावरण के मिलने पर उत्पन्न होकर पौधों पर रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं| फसल में रोग के कारक फफूंद रहने पर फफूंदनाशी से, जीवाणु रहने पर जीवाणुनाशी से, सूत्रकृमि रहने पर सौर उपचार या कीटनाशी से उपचार किया जाता है| मिट्टी में रहने वाले कीटों से सुरक्षा के लिए भी कीटनाशी से बीजोपचार किया जाता है| इसके अतिरिक्त पोषक तत्व स्थिरीकरण के लिए जीवाणु कलचर जैसे राइजोवियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरीलम, फास्फोटिका और पोटाशिक जीवाण से भी बीजोपचार किया जाता है|
    बीज उपचार बहुत ही सस्ता और सरल उपचार है| इसे कर लेने पर लागत का ग्यारह गुणा लाभ और कभी-कभी महामारी की स्थिति में 40 से 80 गुणा तक लागत में बचत सम्भावित है|

    बीज उपचार करने के लिए रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा कैसे तय करे
    रोग नियंत्रण हेतु
    जैव रसायन द्वारा-

    1. ट्राइकोडर्मा- 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    2. स्यूडोमोनास- 4 से 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
      रसायन द्वारा-
    3. कार्बेन्डाजीम या मैंकोजेव या बेनोमील- 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    4. कैप्टान या थीरम- 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    5. फनगोरेन- 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    6. ट्रायसाइक्लोजोल- 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज

    कीट नियन्त्रण हेतु-

    1. क्लोरपायरीफॉस- 5 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज
    2. इमीडाक्लोप्रीड या थायमेथोक्साम- 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    3. मोनोक्रोटोफास- 5 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज (सब्जियों को छोड़कर)

    पोषक तत्व स्थिरीकरण हेतु-

    1. नेत्रजन स्थिरीकरण हेतु- राइजोबियम, एजोटोबेक्टर और एजोस्पाइरील- 250 ग्राम प्रति 10 से 12 किलोग्राम बीज
    2. फास्फोरस विलियन हेतु- पी. एस. वी. (फास्फोवैक्टिरीया) 250 ग्राम प्रति 12 किलोग्राम बीज
    3. पोटाश स्थिरीकरण हेतु- पोटाशिक जीवाणु- 250 ग्राम प्रति 10 से 12 किलोग्राम बीज

    बीज उपचार निम्न ४ विधियों से किया जा सकता है -

    1. सुखा बीजोपचार
    2. भीगे बीजोपचार
    3. गर्म पानी बीजोपचार
    4. स्लरी बीजोपचार
      बीज उपचार विधि
      सुखा बीज उपचार-
      बीज को एक बर्तन में रखें, उसमें रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा में मिलायें, बर्तन को बन्द करें और अच्छी तरह हिलाएँ|
      भीगे बीज उपचार-
      पालीथीन चादर या पक्की फर्श पर बीज फैला दें, अब हल्का पानी का छिड़काव करें, रसायन या जैव रसायन अनुशंसित मात्रा में बीज के ढेर पर डालकर उसे दस्ताना पहने हाथों से अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखा लें|
      गर्म पानी उपचार-
      किसी धातु के बर्तन में पानी को 52 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करें, बीज को 30 मिनट तक उस बर्तन में डालकर छोड़ दें, उपरोक्त तापक्रम पूरी प्रक्रिया में बना रहना चाहिए, बीज को छाया में सुखा लें उसके बाद बुआई करें|
      स्लरी या घोल बीज उपचार-
      स्लरी (घोल) बनाने हेतु रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा को 10 लीटर पानी की मात्र में किसी टब या बड़े बर्तन में अच्छी तरह मिला लें| अब इस घोल में बीज, कंद या पौधे की जड़ों को 10 से 15 मिनट तक डालकर रखें, फिर छाया में बीज या कंद को सुखा ले तथा बुआई या रोपाई करें|

    बीज उपचार से जुडी कुछ सावधानिया -

    1. बीजों में जीवाणु कलचर से बीज उपचार करने के लिए सर्वप्रथम 100 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में उबाल लेते हैं, जब यह एक तार के चासनी जैसा बन जाए, तब इसे ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है, जब घोल पूरी तरह ठंडा हो जाए, तब इसमें 250 ग्राम कलचर को ठीक से मिला दिया जाता है| अब इस मिश्रित घोल को बीज के ढेर पर डालकर अच्छी तरह मिलाकर बुआई कर सकते हैं|
    2. राइजोबियम कल्चर फसलों की विशेषता के आधार पर किये जाते हैं, इसलिए विभिन्न वर्गों के राइजोबियम को दिये गये फसलों के अनुसार ही उपयुक्त मात्रा में इन्हें प्रयोग किया जाना चाहिए|
    3. कल्चर से उपचारित बीज की बुआई शीघ्र करना चाहिए|
    4. बीजों पर यदि जीवाणु कल्चर प्रयोग के साथ-साथ फफूंदनाशी या कीटनाशी रसायनों का प्रयोग करना हो तब सबसे पहले फफूदनाशी का प्रयोग करे फिर कीटनाशी और जीवाणु कलचर का प्रयोग करे और सबके बीच 8 से 10 घंटे का अंतर रखे और उसके उपरान्त एवं अन्त में 20 घंटे के बाद जीवाणु कलचर से बीज उपचार करना चाहिए|
    5. यदि जीवाणु कलचर प्रयोग के साथ-साथ फफूंदनाशी और कीटनाशी रसायन का प्रयोग अनिवार्य हो तब कलचर की मात्रा दोगुनी करनी पड़ेगी| यदि कलचर पहले प्रयोग में लाया गया है, तो फफूंदनाशी और कीटनाशी रसायनों का इस्तेमाल न करें तो ज्याद अच्छा होगा|
    6. बीज को कभी भी उपचार के बाद धूप में नही सुखायें, यानि उपचारित बीज को सुखाने के लिए खुला परन्तु छायादार जगह का प्रयोग करें|
    7. बीज को उपचारित करते समय हाथ में दस्ताना पहनकर ही बीज उपचार करें, यदि थिरम से बीज उपचार करना हो तो आँखों पर चश्मा का प्रयोग करें, क्योंकि थीरम को पानी में मिलाने पर गैस निकलती है, जो आँखों में जलन पैदा करती हैं|
    8. किसी कारण से यदि रसायन या जैव रसायन का फफूंदनाशी या कीटनाशक उपलब्ध न हो तो घरेलू विधि में ताजा गौ-मूत्र 10 से 15 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज के द्वारा भी बीज उपचार कर सकते हैं|
    July 7, 2021
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    ग्राम संस्कृति

    नाग पंचमी

    नाग पंचमी हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है जिस पर नाग देवता की पूरे विधि-विधान से पूजा अर्चना होती है। हर साल नाग पंचमी का यह त्‍योहार सावन की शुक्ल पक्ष की पंचमी को पड़ता है। इस दिन नागों को दूध और लावा चढ़ाने की परंपरा भी है|                                  परंपरा से प्रचिलित कथा के अनुसार- एक बार एक लड़की का भाई भोलेनाथ का परम भक्त था| वह रोज़ सुबह प्रातः भगवान शिव को जल चढाने के लिए मंदिर जाता था, वहां उसे रोज़ नाग देवता के दर्शन होते थे| वह लड़का हर दिन नाग देवता को दूध पिलाता था जिससे धीरे-धीरे दोनों में प्रेम बढ़ गया| अब नाग देवता जब भी उस लड़के को मंदिर में  देखते तो अपनी मणि छोड़कर उसके पैरों में लिपट जाते| इसी तरह एक दिन सावन के महीने में लड़का अपनी बहन के साथ शिव जी के मंदिर जल चढाने गया, उस लड़के को मंदिर में देखते ही साँप फिर से उसके पैरों में लिपट गया| यह सब देख लड़के की बहन डर गयी उसे लगा की साँप उसके भाई को काट रहा है तो उसने पास में पड़ी लाठी से साँप को मार डाला| साँप के मरने के बाद लड़के ने अपनी बहन को पूरी बात बताई तो उस लड़की को अपनी गलती पर बड़ा पछतावा हुआ| फिर वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि - नाग "देवता" का रूप होते हैं, अब तुम्हें दंड मिलेगा चूंकि: ये अपराध तुमसे अनजाने में हुआ है इसलिए कालांतर में लड़की की जगह गुड़िया को पीटा जायेगा| इसलिए तभी से आज तक नाग पंचमी के दिन गुड़िया को पीटा जाता है| और तभी से आज तक- नाग पंचमी को गुड़िया भी कहते हैं|

    August 13, 2021
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    भारत की प्रसिद्ध लोक और जनजातीय कलाएं

    भारत एक विशालतम देश है, जितना विशाल इसका क्षेत्रफल है उतनी ही विशाल और भव्य इसकी कला शैली और पद्धति है जिसे लोककला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अनोखा स्वरुप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की ग्रामीण लोक चित्रकारी बहुत ही सुन्दर हैं जिसमें आपको धार्मिक और आध्यात्मिक चित्रों का बखूबी वर्णन मिलेगा। ऐसी ही कुछ चित्रकलाओ के बारे में हम यहां आपको रूबरू करवा रहे है।

    मधुबनी चित्रकारी

    मधुबनी चित्रकारी बिहार के मधुबनी क्षेत्र की लोकप्रिय कला है जिसे मिथिला की कला भी कहा जाता है। इसकी विशेषता चटकीले और विषम रंगों के इंद्रधनुष से भरे गए रेखा-चित्र अथवा आकृतियां हैं। कहा जाता है ये चित्रकला राजा जनक ने राम सीता के विवाह के दौरान महिला कलाकारों से बनवाई थी। तब से यह चित्रकारी पारम्परिक रूप से इस प्रदेश की महिलाएं ही करती आ रही हैं लेकिन आज इसकी बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए पुरूष भी इस कला से जुड़ गए हैं। ये चित्र अपने आदिवासी रूप और मटियाले रंगों के प्रयोग के कारण पसंद की जाती हैं। प्राचीनकाल में यह कार्य दीवार या भित्ती पर या कच्ची मिट्टी पर किया जाता था परन्तु इसकी लोकप्रियता देख कर आज इसे कागज़, कपड़े, कैनवास आदि पर किया जा रहा है। इस चित्रकारी में शिल्पकारों द्वारा तैयार किए गए खनिज रंगो का प्रयोग होता है।काला रंग काजल और गोबर को मिलाकर तैयार किया जाता हैं, पीला रंग हल्दी, पराग, नीबूं और बरगद की पत्तियों के दूध से; लाल रंग कुसुम के फूल के रस या लाल चंदन की लकड़ी से; हर रंग कठबेल (वुडसैल) वृक्ष की पत्तियों से, सफेद रंग चावल के चूर्ण से; संतरी रंग पलाश के फूलों से तैयार किया जाता है। रंगों का प्रयोग सपाट रूप से किया जाता है जिन्हें न तो रंगत (शेड) दो जाती है और न ही कोई स्थान खाली छोड़ा जाता है।

    तंजौर कला

    यह कला लोक-कहानी - किस्से सुनाने की विस्मृत कला से जुड़ी है। भारत की हर कला का प्रयोग अधिकांशतह किसी बात की अभिव्यक्ति करने के लिए किया जाता है तंजौर कला भी कथन का एक प्रतिपक्षी रूप है। राजस्थान, गुजरात और बंगाल में तंजौर कला के माध्यम से वीरों और देवताओं की पौराणिक कथाएं सुनायी जाती हैं और हमारे प्राचीन वैभव और भव्य सांस्कृतिक विरासत का बहुमूर्तिदर्शी चित्रण किया जाता है।

    वारली लोक चित्रकारी

    वार्ली लोक चित्रकला भारत के महाराष्ट्र प्रान्त की है। वार्ली एक बहुत बड़ी जनजाति है जो पश्चिमी भारत के मुम्बई शहर के उत्तरी बाह्मंचल में बसी है। भारत के इतने बड़े महानगर के इतने निकट बसे होने के बावजूद वार्ली के आदिवासियों पर आधुनिक शहरीकरण कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। वार्ली, महाराष्ट्र की वार्ली जनजाति की रोजमर्रा की जिंदगी और सामाजिक जीवन का सजीव चित्रण है। यह चित्रकारी वे मिट्टी से बने अपने कच्चे घरों की दीवारों को सजाने के लिए करते थे। लिपि का ज्ञान नहीं होने के कारण लोक साहित्य को आम लोगों तक पहुंचाने को यही एकमात्र साधन था। मधुबनी की चटकीली चित्रकारी के मुकाबले यह चित्रकला बहुत साधारण होती है।

    पताचित्र चित्रकारी

    पत्ताचित्र शैली ओडिशा राज्य की प्राचीनतम और सर्वाधिक लोकप्रिय कला है। पत्ताचित्र का नाम संस्कृत के पत्ता जिसका अर्थ है कैनवास और चित्रा जिसका अर्थ है तस्वीर शब्दों से मिलकर बना है।पत्ताचित्र चित्रकारी में चटकीले रंगों का प्रयोग करते हुए सुन्दर तस्वीरों के माध्यम से पौराणिक चित्रण होता है। ऐसी कुछ लोकप्रिय निम्न चित्रकलाये है:-
    वाधिया-जगन्नाथ मंदिर का चित्रण; जगन्नाथ का भगवान कृष्ण के रूप में छवि जिसमें बाल रूप में उनकी शक्तियों को प्रदर्शित किया गया है;
    दसावतारा पति - भगवान विष्णु के दस अवतार;
    पंचमुखी - पांच सिरों वाले देवता के रूप में श्री गणेश जी का चित्रण

    कलमेजुथु

    रंगोली और कोलम शब्द हमारे लिए अनजाने नहीं है, रंगोली हिन्दू परिवारों की दिनचर्या का एक हिस्सा है, जो घर में देवी-देवताओं के स्वागत के लिए घर की देहली और आंगन में बनाई जाती हैं। कला का यह रूप आर्य, द्रविड़ और आदिवासी परम्पराओं का बहुत सुन्दर मिश्रण है।
    कालम (कालमेजुथु) इस कला का एक विचित्र रूप है जो केरल में दिखाई देता है जहा मंदिरों और पावन उपवनों में फर्श पर काली देवी और भगवान के चित्र बनाए जाते हैं। इस कला के चित्रण में प्राकृतिक रंग, द्रव्यों और चूर्णों का प्रयोग किया जाता है। चित्र केवल हाथों से ही बनाए जाते हैं, तस्वीर बनाने का कार्य मध्य से शुरू किया जाता है और फिर एक-एक खण्ड तैयार करते हुए इसे बाहर की ओर ले जाते हैं। चूर्ण को अंगूठे और तर्ज़नी अंगुली की मदद से चुटकी में भरकर एक पतली धार बनाकर फर्श पर फैला देते हैं। चित्रों में सामान्यत: क्रोध अथवा अन्य मनोभावों की अभिव्यक्ति की जाती है। 'कालमेजुथु' पूर्ण होने पर देवता की उपासना की जाती है। उपासना में कई तरह के संगीत के वाद्यों को बजाते हुए भक्ति के गीत गाए जाते हैं। 'कालम' को पूर्व-निर्धारित समय पर बनाना शुरू किया जाता है, और अनुष्ठान समाप्त होते ही इसे तत्काल मिटा दिया जाता है।

    July 1, 2021
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    प्राचीन परम्पराये जो धीरे-धीरे हो रही है लुप्त

    नीम की दातून- नीम की दातून करना अब कुछ गांवों में ही प्रचलित है | हमारे पूर्वज नीम की डंडी तोड़कर (दातून) उससे दाँत साफ करते थे। कभी-कभी सरसों के तेल में नमक मिलाकर भी दांत साफ किए जाते थे। इन दोनों ही तरीको के हमारे दांतो को अनेक फायदे थे, इससे जहां दाँत और आँत की अच्छी तरह सफाई हो जाती है वही यह दाँतों और मसूड़ों को मजबूत बनाये रखने में असरदार है | इसके अलावा हमारे शरीर का खून भी साफ़ होता है तथा आँखों और कानो का रखरखाव में भी सहायक होती है नीम की दातून।

    आँखों में सुरमा लगाना - सुरमा लगाने का प्रचलन भारत में प्राचीन समय से ही रहा है। सुरमा मूल रूप से पत्थर के रूप में पाए जाता है। इससे रत्न भी बनते हैं | सूरमा लगाने से न केवल हमारी आँखे खूबसूरत दिखती है बल्कि यह तंदुरुस्त भी रहती है और सूरमा हमारी आँखों को ठंडक भी पहुँचता है |
    गुड़-चने और सत्तू का सेवन- प्राचीन लोग जब तीर्थ या यात्रा पर जाते थे तो साथ में गुड़, चना या सत्तू लेकर जाते थे, कारण भूना हुआ सत्तू कई दिनों तक काम में लिया जा सकता है और यह पचाने में हल्का होता है साथ ही हमारे शरीर को ठंडक भी देता है। । गर्मियों में अधिकतर लोग कड़ी धूप और लू से बचने के लिए इसका सेवन करते थे। ऐसे ही गुड़ और चना भी हमारे शरीर के लिए बहुत लाभकारी है, कब्ज और एनीमिया जैसी बीमारी को नियमित रूप से गुड़ और चने का सेवन करके खत्म किया जा सकता है| गुड़ और चना हमारे शरीर को ऊर्जावान रखते हैं, जिससे थकान और कमजोरी महसूस नहीं होती।
    तुलसीपत्र का सेवन - तुलसी का पौधा एक एंटीबायोटिक मेडिसिन हैं| प्राचीनकाल में लोग प्रतिदिन तुलसी की पत्ती का सेवन करते थे इसलिए तब घरों के आँगन में तुलसी का पौधा भी हुआ करता था। तुलसी के पत्ते को यदि तांबे के बर्तन में पानी के साथ मिलाकर कुछ घंटे रखने के बाद उसका जल पिया जाये और तुलसीदल को भी खा लिया जाये तो जीवन में कभी कैंसर होने की सम्भावना न के बराबर रह जाती है तथा अन्य कई रोगो से भी मुक्ति मिल जाती हैं| इसका नियमित सेवन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोत्तरी करता है| इसके अलावा तुलसी का पौधा अगर घर में हो तो मच्छर, मक्खी, सांप आदि से भी बचाव होता है।

    दोनों हाथ जोड़कर स्वागत करना - प्राचीन काल में हाथ जोड़ कर एक दूसरे का अभिनन्दन या घर आये अतिथियों का स्वागत किया जाता था, जो आजकल अमूमन देखने को मिलता नहीं है| वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो 'नमस्ते' मुद्रा में हमारी उँगलियों के शिरो बिंदुओं का मिलान होता है जहाँ- आंख, कान और मस्तिष्क के प्रेशर प्वॉइंट्स (दबाव केंद्र) होते हैं जो दोनों हाथ जोड़ने पर इन बिंदुओं पर दबाव बनाते है जिससे हमारे शरीर में रक्त संचालन सुचारु रूप से होता है और कई रोगो से मुक्त भी रहता है साथ ही साथ नमस्ते की मुद्रा में हम किसी अन्य व्यक्ति से शारीरिक संपर्क में भी नहीं आते है और कीटाणुओं के संक्रमण का खतरा भी नहीं रहता।
    परंपरागत घरेलू नुस्खे और कहावतें - प्राचीन लोगों को इन नुस्खों और कहावतों का बहुत ज्ञान होता था जो वर्तमान पीढ़ी में देखने को नहीं मिलता है क्योंकि अब उनको दादा- दादी या नाना- नानी के साथ रहने के उतने अवसर नहीं मिल पाते जो पहले या तो संयुक्त परिवार के कारण प्राप्त थे या इस नियम के तहत की हर छुट्टिया दादी नानी के घर ही बितानी है| आज समय बदल गया है और यही कारण है की दादी और नानी अपने अनुभव और ज्ञान को आगे की पीढ़ियों में पहुँचा सकने में असमर्थ है| कहावतों में जीवन का बहुत गहरा राज़ छिपा होता था जो इंसान को मजबूत और संयमित बनाते थे, इसी प्रकार घरेलू नुस्खों में कई बीमारियों और परेशानियों का घर बैठे इलाज़ संभव था |

    June 30, 2021
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