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    इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम (Integrated Farming System)

    आजकल पारम्परिक खेती को लेकर एक धारणा बन गयी है कि इससे मुनाफा मिलता कठिन होता है और यही कारण है कि कई किसान किसानी छोड़ कर किसी और व्यवसाय कि तरफ रुख कर रहे है I
    परन्तु वही कुछ किसान ऐसे भी है जो नयी नयी खेती की तकनीक को अपना कर दिन दुगनी रात चौगुनी कमाई कर रहे है, ऐसी ही एक तकनीक का नाम है इंटीग्रेटेड फार्मिंग या एकीकृत कृषि प्रणाली I
    आइये जानते है क्या है इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम?
    इंटीग्रेटेड फार्मिग सिस्टम यानी एकीकृत कृषि प्रणाली का महत्त्व छोटे और सीमांत किसानों के लिए ज्यादा है हालाँकि बड़े किसान भी इस प्रणाली की अपनाकर खेती से मुनाफा कमा सकते हैंI एकीकृत कृषि प्रणाली का मुख्य उदेश्य खेती की जमीन के हर हिस्से का पूर्ण रूप से इस्तेमाल करना हैI इसके तहत आप एक ही साथ अलग-अलग फसल, फूल, सब्जी, मवेशी पालन, फल उत्पादन, मधुमक्खी पालन, मछली पालन इत्यादि कर सकते हैं I इससे आप अपने संसाधनों का पूरा इस्तेमाल कर पाएंगे और लागत में कमी आएगी फलस्वरूप उत्पादकता बढ़ेगी I एकीकृत कृषि प्रणाली न केवल पर्यावरण के लिए अनुकूल है बल्कि यह खेत की उर्वरक शक्ति को भी बढ़ाती हैI
    इंटीग्रेटेड फार्मिंग का एक बहुत ही बेहतरीन उदाहरण आपके लिए प्रस्तुत है I
    उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज 90 किलोमीटर दूर सीतापुर जिला राष्ट्रीय राज्यमार्ग के किनारे जिला कृषि उपनिदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने अपने कार्यालय में खाली पड़ी जमीन पर आधुनिक विधि से एक एकड़ में मौडल तैयार किया है I
    इस एक एकड़ के मौडल में मछलीपालन, बत्तखपालन, मुरगीपालन के साथसाथ फलदार पौधों की नर्सरी तैयार करवाई गयी है I श्री अरविंद मोहन मिश्र बताते हैं कि उन्होंने एक बीघा जमीन में तालाब की खुदाई करवाई है, तालाब में ग्रास कौर्प मछली डाल रखी हैं, इतनी मछली से सालभर में करीब एक से डेढ़ लाख रुपए की कमाई हो जाती है I इस के बाद तालाब के ऊपर मचान बना कर उस में पोल्ट्री फार्म बनाया है, जिस में कड़कनाथ सहित अन्य देशी मुर्गा - मुर्गी पाल रखे हैं I जो दाना मुर्गियों को दिया जाता हैं, उस का जो शेष भाग बचता है, वह मचान से नीचे गिरता रहता है और उसे नीचे तालाब की मछलिया खा लेती है जिससे मछलियों के दाने की बचत हो जाती है I
    2 बीघा जमीन पर ढैंचा की बुआई कर रखी है जिससे हरी खाद बनेगी और उस के बाद इस की जुताई करा के इस में शुगर फ्री धान की रोपाई कर देंगे I मिश्र जी ने यह भी बताया कि २ बीघे में गन्ने की पैदावार की गयी है जिससे तकरीबन 200 से 250 क्विंटल गन्ने की पैदावार लेते हैं, साथ ही, गन्ने में बीचबीच में अगेती भिंडी फसल बो रखी है, जिस से 30 से 40 हजार रुपए का मुनाफा होता है I सहफसली से एक और फायदा है कि जो छिड़काव या खाद हम एक फसल में देते हैं, उस का लाभ सहफसली को भी मिल जाता है I
    जिला उपकृषि निदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने कहा कि पायलट प्रोजैक्ट के तौर पर यह मॉडल सीतापुर जिले में 10 किसानों के लिए और बनवाया जाएगा I इस मॉडल की मंजूरी के लिए शासन से भी बातचीत चल रही है I
    आजकल कृषि में लागत वृद्धि होने का एक कारण यह भी है कि किसान अधिक उत्पादन के चक्कर में खेती में रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहे हैं, वो भी बिना किसी मापदंड के I इस को कम करने के लिए किसान खुद देशी विधि जैसे वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल कर या गाय का गोबर और गौमूत्र से जीवामृत बना कर छिड़काव करें, इससे कृषि लागत में कमी लायी आज सकती है I
    किसान यदि ठान ले तो भारतीय खेती व् नवीनतम कृषि तकनीक के जरिये वो अपनी आमदनी भी बढ़ा सकता है और कृषि उत्पाद की गुणवत्ता भी कायम रख सकता है I

    August 26, 2021
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    मिट्टी की जांच या मृदा परीक्षण

    खेत की मिट्टी का सीधा प्रभाव फसल की पैदावार से होता है, गुणवत्तापूर्ण उपज और अधिक पैदावार के लिए मिट्टी में कौन कौन से तत्व होने चाहिए इसकी जानकारी होना जरूरी है। मिट्टी में लम्बे अरसे से रासायनिक पदार्थों और कीटनाशकों के प्रयोग होने के कारण खेत की मिट्टी की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है। किसी भी फसल से उन्नत उपज लेने के लिए ये जानना जरूरी हैं कि उसे जिस मिट्टी के लगाया जा रहा है. उसमें उसके विकास के लिए पोषक तत्व मौजूद हैं या नही। मृदा परीक्षण यानि मिट्टी की जांच करा कर किसान अपने खेत की मिट्टी की सही सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी की जांच में भूमि के अम्लीय और क्षारीय गुणों की जांच की जाती है, ताकि पीएच मान के आधार पर उचित फसल को उगाया जा सके. और भूमि सुधार किया जा सके। मिट्टी की जाँच से किसान भाई अपने खेत की मिट्टी की गुणवत्ता जानकार उसमे उसी के उपयुक्त फसल लगा कर कम खर्च में अधिक उपज प्राप्त कर सकते है।
    मिट्टी की जांच क्यों आवश्यक है
    मिट्टी की जांच कराने के बाद मिट्टी में मौजूद कमियों को सुधारकर उसे फिर से उपजाऊ बनाने के लिए। मिट्टी परिक्षण करवाकर उर्वरकों और रसायनों पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बच सकता है। जैविक खेती करने वाले किसान भाई मिट्टी की जांच कराकर मिट्टी के जैविक गुणों का पता लगा सकते हैं. और उसी के आधार पर जैविक पोषक तत्वों का इस्तेमाल पूरी तरह से जैविक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी में कई पोषक तत्व होते हैं जैसे कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश , कैल्सिशयम, मैग्नीशियम और सूक्ष्म तत्वों जैसे जस्ता , मैग्नीज, तांबा, लौह, बोरोन, मोलिबडेनम और क्लोरीन इत्यादि अगर इन सबकी मौजूदगी मिट्टी में संतुलित रूप में रहती है तो इससे अच्छी पैदावार प्राप्त होती है। मिट्टी में इन तत्वों की कमी के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम होने लगती है।
    मिट्टी जांच के फायदे
    सघन खेती के कारण खेत की मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी समय समय पर मिलती रहती है। मिट्टी में विभिन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता की दशा का ज्ञान हो जाता है। बोयी जाने वाली फसल के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। संतुलित उर्वरक प्रबन्ध द्वारा अधिक लाभ कमा सकते है।
    मिट्टी जांच कब करानी चाहिए
    मिट्टी की जांच के समय ध्यान देना चाहिए की भूमि में नमी की मात्रा कम से कम हो। फसल की बुवाई या रोपाई से एक महीना पहले खेत की मिट्टी की जांच कराएं। अगर आप सघन पद्धति से खेती करते हैं तो हर वर्ष मिट्टी की जांच करवानी चाहिए। यदि खेत में वर्ष में एक फसल की खेती की जाती है तो हर 2 या 3 साल में मिट्टी की जांच करा लें।
    मिट्टी की जांच कैसे करे
    एक एकड़ क्षेत्र में लगभग 8-10 स्थानों से ‘V’ आकार के 6 इंच गहरे गहरे गढ्ढे बनायें। एक खेत के सभी स्थानों से प्राप्त मिट्टी को एक साथ मिलाकर ½ किलोग्राम का एक नमूना बनायें। नमूने की मिट्टी से कंकड़, घास इत्यादि अलग करें। सूखे हुए नमूने को कपड़े की थैली में भरकर कृषक का नाम, पता, खसरा संख्या, मोबाइल नम्बर, आधार संख्या, उगाई जाने वाली फसलों आदि का ब्यौरा दें। नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें अथवा’ ‘परख’ मृदा परीक्षण किट द्वारा स्वयं परीक्षण करें।

    July 16, 2021
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    बीज उपचार से जुडी मुख्य जानकारी

    बीज पौधे का वह भाग होता है जिसमें पौधों के प्रजनन की क्षमता होती है और जो मृदा के सम्पर्क में आने पर अपने जैसा ही एक नये पौधे को जन्म देता है। बीज फसल के दाने का पूर्ण या आधा भाग भी हो सकता है।
    यह बात बताने की जरुरत नहीं है की एक सफल, गुणवत्तापूर्वक, लहराती उपज के लिए उच्च कोटि का रोग रहित, स्वस्थ और उन्नत बीज की आवश्यकता होती है | बीज को निरोग और स्वस्थ बनाने के लिए बीज उपचार किया जाता है जिसमे बीज को अनुशंसित रसायन या जैव रसायन से उपचारित करना होता है | बीज उपचार से बीज में उपस्थित आन्तरिक या वाह्य रोगजनक जैसे फफूंद, जीवाणु, विषाणु एवं सूत्रकृमि और कीट नष्ट हो जाते है और बीजों का स्वस्थ अंकूरण तथा अंकुरित बीजों का स्वस्थ विकास होता है | साथ ही पोषक तत्व स्थिरीकरण हेतु जीवाणु कलचर से भी बीज उपचार किया जाता है| बीज उपचार की सभी पहलुओं की जानकारी नीचे उपलब्ध है|
    बीज उपचार का महत्त्व इसलिए भी है की यह प्रारंभ में ही बीज जनित रोगों और कीटों का प्रभाव न्यून या रोकने में मददगार है| यदि पौधों की वृद्धि के बाद इनको रोकने का प्रयास किया जाये तो इससे अधिक खर्च भी होगा और क्षति भी अधिक होगी| बीजों में अंदर और बाहर रोगों के रोगाणु सुशुप्ता अवस्था में, मिट्टी में और हवा में मौजूद रहते हैं| ये अनुकूल वातावरण के मिलने पर उत्पन्न होकर पौधों पर रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं| फसल में रोग के कारक फफूंद रहने पर फफूंदनाशी से, जीवाणु रहने पर जीवाणुनाशी से, सूत्रकृमि रहने पर सौर उपचार या कीटनाशी से उपचार किया जाता है| मिट्टी में रहने वाले कीटों से सुरक्षा के लिए भी कीटनाशी से बीजोपचार किया जाता है| इसके अतिरिक्त पोषक तत्व स्थिरीकरण के लिए जीवाणु कलचर जैसे राइजोवियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरीलम, फास्फोटिका और पोटाशिक जीवाण से भी बीजोपचार किया जाता है|
    बीज उपचार बहुत ही सस्ता और सरल उपचार है| इसे कर लेने पर लागत का ग्यारह गुणा लाभ और कभी-कभी महामारी की स्थिति में 40 से 80 गुणा तक लागत में बचत सम्भावित है|

    बीज उपचार करने के लिए रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा कैसे तय करे
    रोग नियंत्रण हेतु
    जैव रसायन द्वारा-

    1. ट्राइकोडर्मा- 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    2. स्यूडोमोनास- 4 से 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
      रसायन द्वारा-
    3. कार्बेन्डाजीम या मैंकोजेव या बेनोमील- 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    4. कैप्टान या थीरम- 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    5. फनगोरेन- 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    6. ट्रायसाइक्लोजोल- 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज

    कीट नियन्त्रण हेतु-

    1. क्लोरपायरीफॉस- 5 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज
    2. इमीडाक्लोप्रीड या थायमेथोक्साम- 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
    3. मोनोक्रोटोफास- 5 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज (सब्जियों को छोड़कर)

    पोषक तत्व स्थिरीकरण हेतु-

    1. नेत्रजन स्थिरीकरण हेतु- राइजोबियम, एजोटोबेक्टर और एजोस्पाइरील- 250 ग्राम प्रति 10 से 12 किलोग्राम बीज
    2. फास्फोरस विलियन हेतु- पी. एस. वी. (फास्फोवैक्टिरीया) 250 ग्राम प्रति 12 किलोग्राम बीज
    3. पोटाश स्थिरीकरण हेतु- पोटाशिक जीवाणु- 250 ग्राम प्रति 10 से 12 किलोग्राम बीज

    बीज उपचार निम्न ४ विधियों से किया जा सकता है -

    1. सुखा बीजोपचार
    2. भीगे बीजोपचार
    3. गर्म पानी बीजोपचार
    4. स्लरी बीजोपचार
      बीज उपचार विधि
      सुखा बीज उपचार-
      बीज को एक बर्तन में रखें, उसमें रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा में मिलायें, बर्तन को बन्द करें और अच्छी तरह हिलाएँ|
      भीगे बीज उपचार-
      पालीथीन चादर या पक्की फर्श पर बीज फैला दें, अब हल्का पानी का छिड़काव करें, रसायन या जैव रसायन अनुशंसित मात्रा में बीज के ढेर पर डालकर उसे दस्ताना पहने हाथों से अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखा लें|
      गर्म पानी उपचार-
      किसी धातु के बर्तन में पानी को 52 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करें, बीज को 30 मिनट तक उस बर्तन में डालकर छोड़ दें, उपरोक्त तापक्रम पूरी प्रक्रिया में बना रहना चाहिए, बीज को छाया में सुखा लें उसके बाद बुआई करें|
      स्लरी या घोल बीज उपचार-
      स्लरी (घोल) बनाने हेतु रसायन या जैव रसायन की अनुशंसित मात्रा को 10 लीटर पानी की मात्र में किसी टब या बड़े बर्तन में अच्छी तरह मिला लें| अब इस घोल में बीज, कंद या पौधे की जड़ों को 10 से 15 मिनट तक डालकर रखें, फिर छाया में बीज या कंद को सुखा ले तथा बुआई या रोपाई करें|

    बीज उपचार से जुडी कुछ सावधानिया -

    1. बीजों में जीवाणु कलचर से बीज उपचार करने के लिए सर्वप्रथम 100 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में उबाल लेते हैं, जब यह एक तार के चासनी जैसा बन जाए, तब इसे ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है, जब घोल पूरी तरह ठंडा हो जाए, तब इसमें 250 ग्राम कलचर को ठीक से मिला दिया जाता है| अब इस मिश्रित घोल को बीज के ढेर पर डालकर अच्छी तरह मिलाकर बुआई कर सकते हैं|
    2. राइजोबियम कल्चर फसलों की विशेषता के आधार पर किये जाते हैं, इसलिए विभिन्न वर्गों के राइजोबियम को दिये गये फसलों के अनुसार ही उपयुक्त मात्रा में इन्हें प्रयोग किया जाना चाहिए|
    3. कल्चर से उपचारित बीज की बुआई शीघ्र करना चाहिए|
    4. बीजों पर यदि जीवाणु कल्चर प्रयोग के साथ-साथ फफूंदनाशी या कीटनाशी रसायनों का प्रयोग करना हो तब सबसे पहले फफूदनाशी का प्रयोग करे फिर कीटनाशी और जीवाणु कलचर का प्रयोग करे और सबके बीच 8 से 10 घंटे का अंतर रखे और उसके उपरान्त एवं अन्त में 20 घंटे के बाद जीवाणु कलचर से बीज उपचार करना चाहिए|
    5. यदि जीवाणु कलचर प्रयोग के साथ-साथ फफूंदनाशी और कीटनाशी रसायन का प्रयोग अनिवार्य हो तब कलचर की मात्रा दोगुनी करनी पड़ेगी| यदि कलचर पहले प्रयोग में लाया गया है, तो फफूंदनाशी और कीटनाशी रसायनों का इस्तेमाल न करें तो ज्याद अच्छा होगा|
    6. बीज को कभी भी उपचार के बाद धूप में नही सुखायें, यानि उपचारित बीज को सुखाने के लिए खुला परन्तु छायादार जगह का प्रयोग करें|
    7. बीज को उपचारित करते समय हाथ में दस्ताना पहनकर ही बीज उपचार करें, यदि थिरम से बीज उपचार करना हो तो आँखों पर चश्मा का प्रयोग करें, क्योंकि थीरम को पानी में मिलाने पर गैस निकलती है, जो आँखों में जलन पैदा करती हैं|
    8. किसी कारण से यदि रसायन या जैव रसायन का फफूंदनाशी या कीटनाशक उपलब्ध न हो तो घरेलू विधि में ताजा गौ-मूत्र 10 से 15 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज के द्वारा भी बीज उपचार कर सकते हैं|
    July 7, 2021
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    बेवर की खेती जो किसानो को कभी धोखा नहीं देती

    बेवर खेती यानी एक ऐसी खेती जो किसानो को मौसम की मार पड़ने पर भी किसान को भूखा नहीं मरने देती है बल्कि इतना तो दे ही जाती है कि किसानो का गुज़ारा चल जायेI बेवर खेती में ज़मीन जोते बिना ही उसमे 56 तरीके से पारंपरिक बीजों से खेती की जाती हैI
    ऐसी खेती मध्यप्रदेश के डिंडौरी ज़िले में या मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहने वाले बैगा और पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के द्वारा करती देखी जा सकती है I इसमें खेत को जोता नहीं जाता है और छोटी-बड़ी झाड़ियों को खेत की जमीन पर जलाया जाता है और फिर आग ठंडी होने पर वहीं ज़मीन पर कम से कम 16 अलग-अलग तरह के अनाज, दलहन और सब्जियों के बीज लगा दिए जाते है I ये वो बीज है जो अधिक बारिश हुई तो भी उग जाएंगे और कम बारिश हुई तो भी फ़सल की गारंटी है I इस खेती में न तो खाद की ज़रूरत होती है और न महंगे कीटनाशकों की I ब्रिटिश सरकार में जंगल की कटाई का हवाला देते हुए आदिवासियों के पारंपरिक बेवर या झूम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन उस वक्त मध्य प्रदेश के 7 गांवों को 2336 एकड़ के इलाके में इस तरीके की खेती की छूट थी। 1927 में वन कानून बनने के बाद यह छूट वापस ले ली गई। लेकिन बेवर खेती की परंपरा तमाम प्रतिबंधों के बाद भी छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में फल-फूल रही है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के दूरदराज इलाको में जहां मौसम विभाग की जानकारी नहीं पहुंच पाती हैं, वह अगर गांव में घुर्घूटी कीड़ा निकलता है तो गांव के लोग यह मानते हैं की इस साल बारिश अच्छी होगी। आदिवासीयो का मौसम का अनुमान लगाने का ये पारंपरिक तरीका शत प्रतिशत सटीक होता है। यहां के आदिवासी बिना खेत की जुताई कर के कंदमूल फलों के बीजों को लगाते हैं। ये वो कंद-मूल हैं, जिन्हें खाकर पर्याप्त पोषण तो मिलता ही है, तरह-तरह की बीमारियों से भी छुटकारा मिलता है। जंगल में मिलने वाले कम से कम 24 तरह के पत्ते और फूल, 25 तरह फल और सब्जिया, मशरुम की लगभग 50 प्रजातियां बैगा और कोरबा आदिवासीयो का भोजन हैं I कंद की बात करे तो “सैदूकांदा, ढुरसीकांदा, बैचांदीकांदा, लोडंगीकांदा, कनिहाकांदा, डोनचीकांदा, रबीकांदा, ढुरसीकांदा, बड़ाइनकांदा, तिखुरकांदा, कड़ुगीठकांदा, बिराड़कांदा इत्यादि प्रकार है I इसी तरह साग भाजी के भी विभिन्न प्रकार है जिनमे कुछ मुख्य है केवलार भाजी, पीपर भाजी, अमला भाजी, लमेर भाजी, चिरौती भाजी, चरौटा भाजी, कच्छर भाजी, अकोती भाजी, तिनसा भाजी, करैया भाजी, कोंजियारी भाजी, कुसुम भाजी, गिरुल भाजी, ककती भाजी I इन कंदमूल और साग का बीमारियों में उपचार जाने तो आदिवासी प्रजातियों का मानना है की यदि किसी को बुखार हो जाए या पेटदर्द हो तो कड़ूगीठ कांदा या बेचांदीकांदा खाकर इन बीमारियों से लड़ लेते हैं I किसी को बिच्छू ने काट लिया तो रबीकांदा पीसकर लगा दें. महिला का प्रसव हो तो डोनची कांदा खिलाना लाभकारी होता है. इस कांदा को खाकर प्रसूता दूसरे दिन से काम पर लौट सकती है I इस खेती से यह तो जानकारी मिलती है की आज के समय हम जिन बातो को महत्वपूर्ण जान कर उन पर अमल करने की सलाह देते है वही बाते सदियों से हमारी संस्कृति में जुडी हुई थी, प्राचीन समय से ही हमारे देश की विभिन्न जनजातियों ने हमेशा से बहुफ़सली खेती को बढ़ावा दिया है इससे एक तो खरपतवार नहीं आते और कीट नियंत्रण भी होता है. आज हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि खाने के लिए एक ही तरह के तेल या दलहन का उपयोग नहीं करना चाहिए. लेकिन इस बात को हमारी जनजातियों ने सदियों पहले से जान-समझ लिया था. उनके भोजन की विविधता से यह साफ़ झलकता है I यही कारण है की बैगा, गोंड और अन्य जनजाति प्रकृति पूजा को महत्वपूर्ण मानती है, ये जानते है कि प्रकृति की संचलन समझ से ही पृथ्वी पर जिया जा सकता है I

    July 6, 2021
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    घर में सुख शांति के लिए कैसा हो घर का वास्तु शास्त्र

    घर एक ऐसी जगह है जहा व्यक्ति दिन भर की भागा दौड़ी, कामकाज से जूझ कर सुकून, शांति, प्यार और अपनत्व चाहता है। अच्छी सुकून की नींद, अच्छा सेहतमंद भोजन और भरपूर प्यार-अपनत्व हर व्यक्ति की इच्छा होती है और यदि उसको यह सब घर में नहीं मिल रहा है तो घर में यक़ीनन कुछ तो वास्तुदोष है।
    घर किस दिशा में होना चाहिए?
    घर की सबसे उत्तम दिशा- पूर्व, ईशान और उत्तर है। वायव्य और पश्चिम सम है। आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा सबसे खराब होती है।
    उत्तर दिशा में घर की खिड़की, दरवाजे, बालकनी होनी चाहिए।
    घर का भारी सामान दक्षिण दिशा में रखना चाहिए।
    घर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में होना अति उत्तम है।
    रसोईघर और टॉयलेट पास-पास नहीं होने चाहिए, रसोईघर या शौचालय पश्चिम दिशा में होना चाहिए।
    ईशान दिशा में बोरिंग, पंडेरी, पानी की टंकी, पूजास्थल या घर का मुख्य द्वार होना चाहिए।
    वायव्य दिशा में आपका शयनकक्ष, गैरेज, गौशाला आदि होना चाहिए। घर के मुखिया का कमरा नैऋत्य दिशा में बना सकते हैं। कैश काउंटर, मशीनें आदि आप इस दिशा में रख सकते हैं।
    घर में आँगन एक महत्वपूर्ण स्थान होता है, घर के आगे और घर के पीछे छोटा सा ही सही, पर आंगन होना चाहिए। आंगन में तुलसी, अनार, जामफल, कड़ी पत्ते का पौधा, नीम, आंवला आदि के अलावा सकारात्मक ऊर्जा पैदा करने वाले फूलदार पौधे लगाएं जाने चाहिए।
    रसोईघर के लिए सबसे उपयुक्त स्थान आग्नेय कोण यानी दक्षिण-पूर्वी दिशा है, जो कि अग्नि का स्थान होता है। दूसरी वरीयता का उपयुक्त स्थान उत्तर-पश्चिम दिशा है।
    अध्ययन कक्ष के लिए पूर्व, उत्तर, ईशान तथा पश्चिम का मध्य में बनाया जा सकता है।
    अध्ययन करते समय दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार से सटाकर पूर्व तथा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए, पीठ के पीछे द्वार अथवा खिड़की न हो। अध्ययन कक्ष का ईशान कोण खाली होना चाहिए।
    अतिथि को हमारी संस्कृति में देवता का स्थान दिया गया है, तो उसका कक्ष उत्तर-पूर्व
    (ईशान कोण) या उत्तर-पश्चिम (वाव्यव कोण) दिशा में ही होना चाहिए।
    वैसे तो घर में मंदिर नहीं होना चाहिए लेकिन यदि आप बनाना ही चाहते हैं तो ईशान की दिशा में घर से बाहर आंगन में बनाएं या पूजा का एक कमरा अलग ही रखें। इसके अलावा द्वार की देहरी सुंदर और सजावटी रखे इससे घर में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। दरवाजा और खिड़कियां दो पुड़ वाली हो। उचित हवा और प्रकाश के भरपूर होनी चाहिए।
    कहा जाता है की स्नानगृह में चंद्रमा का वास होता है और शौचालय में राहू का। शौचालय और स्नानगृह एकसाथ नहीं होना चाहिए।शौचालय मकान के पश्चिम-दक्षिण कोण में अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य में होना उत्तम है। शौचालय के लिए वायव्य कोण तथा दक्षिण दिशा के मध्य का स्थान भी उपयुक्त बताया गया है।शौचालय में सीट इस प्रकार हो कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या उत्तर की ओर होना चाहिए। स्नानघर पूर्व दिशा में होना चाहिए। नहाते समय हमारा मुख पूर्व या उत्तर में है तो लाभदायक माना जाता है। बाथरूम में वॉश बेशिन को उत्तर या पूर्वी दीवार में लगाना चाहिए। दर्पण को उत्तर या पूर्वी दीवार में लगाना चाहिए। दर्पण दरवाजे के ठीक सामने नहीं होना चाहिए।
    मुख्य शयन कक्ष घर के दक्षिण-पश्चिम या उत्तर-पश्चिम की दिशा की ओर होना चाहिए।
    अगर घर दो मंज़िला है तो मास्टर बेडरूम ऊपरी मंजिल के दक्षिण-पश्चिम कोने में होना चाहिए।
    शयन कक्ष में सोते समय हमेशा सिर दीवार से सटा होना चाहिए और पैर उत्तर या पश्चिम दिशा की ओर होने चाहिए। यह कुछ वास्तु शास्त्र के नियम है जिन्हे आप अपन अगर बनाते वक़्त ध्यान में रख सकते है और एक खुशहाल, समृद्ध जीवन का आनंद ले सकते है।

    June 26, 2021
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    किसानों के लिए कृषि के कुछ व्यवसाय

    • कृषि उपकरण किराया :- यदि आपके पास बेहतर कृषि के उपकरण मौजूद हैं या आपके पास उसे खरीदने के लिए पर्याप्त पूंजी हैं, तो आप इसे खरीद कर किराये पर चला सकते हैं. आप अपने इन उपकरणों को किसानों को किराये पर या पट्टे पर दे सकते हैं. और इस तरह से यह व्यवसाय आप कर सकते हैं!
    • पेड़ों के बीज की सप्लाई :- विभिन्न तरह के पेड़ों के बीज काट कर आप इसे लोगों को बेच कर भी व्यवसाय कर सकते हैं. क्योंकि आज बहुत से लोग नये पौधे लगाना चाहते हैं. तो ऐसे में यह व्यवसाय बहुत अच्छा हो सकता है!
    • फलों और सब्जियों का निर्यात :– फलों और सब्जियों के व्यापार को स्थानीय किसानों से एकत्र करके निर्यात शुरू कर सकते हैं. यह आसान कम्युनिकेशन के माध्यम से किया जा सकता है, जैसे एक टेलीफोनिक, वार्तालाप, इन्टरनेट कनेक्शन के साथ वाला कंप्यूटर आदि!
    • कृषि फार्म :- आप उचित पैसे लगाकर कृषि फार्म शुरू कर सकते हैं. आप स्थानीय मांग के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन कर सकते हैं, और उन्हें स्थानीय स्तर पर बेच सकते हैं. इसके अलावा यदि आप इसे दूर के क्षेत्रों के लिए करना चाहते हैं, तो आप डिस्ट्रीब्यूशन चैनलों के माध्यम से भी उत्पाद की सप्लाई कर सकते हैं!
    • फ़र्टिलाइज़र वितरण व्यवसाय :- इस व्यवसाय को मध्यम पूंजी का निवेश कर शुरू कर सकते हैं. यह ज्यादातर सरकार के नियंत्रण में होता है. इसलिए यह आपके लिए अच्छा साबित हो सकता है!
    • आर्गेनिक फार्म ग्रीन हाउस :– आर्गेनिक रूप से विकसित कृषि उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण इस कृषि व्यवसाय में वृद्धि हुई है. चूंकि देखा जाता है कि रसायनों और फ़र्टिलाइज़र्स के साथ उगायें जाने वाले खाद्य पदार्थों में कई हेल्थ रिस्क हो सकते हैं, इसलिए लोग आर्गेनिक खाद्य पदार्थ उगा कर आर्गेनिक फार्म ग्रीन हाउस शुरू कर सकते हैं!
    • खाद्य पदार्थों की थोक बिक्री :– आप ऐसे खाद्य पदार्थों की भी कटाई कर सकते हैं, जिन्हें चावल या मकई उत्पाद की तरह थोक में बेचा जा सकता है, इन उत्पादों को आप थोक में खाद्य उत्पादन कंपनियों को बेच सकते हैं!
    • हाइड्रोपोनिक रिटेल स्टोर :- यह एक नई वृक्षारोपण तकनीक है, जिसमें कमर्शियल और घरेलू उपयोग दोनों के लिए वृक्षारोपण के लिए मिट्टी की आवश्यकता होती है!
    • भोजन पहुँचाना :- यदि आप खाद्य पदार्थों को उगाते या बनाते हैं, तो आप स्थानीय उपभोक्ताओं को जो स्थानीय उत्पादों को खरीदना चाहते हैं, उन्हें आप ताज़ा खाद्य पदार्थ वितरित करने के लिए एक व्यवसाय का निर्माण भी कर सकते हैं!
    • फूलवाला :– इस व्यवसाय के लिए फूलों के उत्पादकों के साथ एक खुदरा स्थान और कनेक्शन की आवश्यकता होती है. यह सबसे अधिक लाभदायक खुदरा कृषि व्यवसाय के विकल्पों में से एक है, जो ग्राहकों को फूलों की डोरस्टेप डिलीवरी प्रदान करके ऑनलाइन भी किया जा सकता है!
    • आटा मिलिंग :– आप आटा मिल का व्यवसाय भी कर सकते हैं, इसमें अपने खुद के ब्रांड के नाम से उत्पाद स्थापित करना इस व्यवसाय में अत्यधिक लाभदायक है!
    • जड़ी बूटी का व्यवसाय :– कृषि के लिए तुलसी, पार्सले और इसी तरह की जड़ी बूटियाँ महान कृषि उत्पादों में से हैं. इसलिए आप इसे अपने घर या खेत में उगा सकते हैं. और बेच कर व्यवसाय शुरू कर सकते हैं!
    • खेत की फसल :– सोयाबीन, लौंग और अन्य प्रकार की फसलों को उगाने के लिए उचित मात्रा में क्षेत्र की आवश्यकता होती है. अगर आपके पास जमीन है, तो आप इस तरह के खाद्य उत्पादकों को बेचने के लिए विशिष्ट फसलों की कटाई कर सकते हैं!
    • तितली की खेती :- अक्सर देखा जाता है कि तितलियों का उपयोग माली अपने पौधों की प्रोसेसेज एवं सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए करते हैं. ऐसे में यदि आप खुद की तितली कॉलोनी शुरू करते हैं और ऐसे ग्राहकों को टारगेट करते हैं जिन्हें इसकी आवश्यकता होती है तो इससे काफी अच्छा व्यवसाय शुरू हो सकता है!
    • प्लाटिंग सेवा :- यदि आपके पास अपना खुद का खेत नहीं है, लेकिन फिर भी आप फसल बुवाई करना जानते हैं, तो आप इस तरह के व्यवसाय पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं, जहाँ आप अपनी खुद की प्लाटिंग सेवा शुरू कर सकते हैं. इसके लिए आप अपने क्षेत्र के अन्य किसानों या उत्पादकों के साथ भी काम कर व्यवसाय शुरू कर सकते हैं!
    • सूखे फूल का व्यवसाय :- फूलों का उत्पादन आज के कृषि में सबसे तेजी से बढने वाली फसल प्रवृत्तियों में से एक हैं. इस व्यवसाय में सभी प्रकार के फूलों की आवश्यकता होती हैं, जोकि विशेष रूप से यूनिक और हार्ड किस्मों के बढने के लिए जरुरी है!
    March 27, 2021
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    किस तरह की मिट्टी में कौन सी फसल उगानी चाहिए

    दुनिया की ज्यादातर फसलें, फल और सब्जियां मिट्टी में होती हैं। लेकिन हर तरह की मिट्टी की एक खासियत होती है और उसमें उसके अनुरुप वाली ही फसलें उगती हैं। हमारे देश में एक कहावत है - मिट्टी का तन है मिट्टी में मिल जाएगा। इस बात से हमारी ज़िंदगी में मिट्टी की क्या उपयोगिता है ये समझ आ जाता है। कैल्शियम, सोडियम, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम, आयरन, क्ले और मिनरल ऑक्साइड के अवयवों से मिलकर बनी मिट्टी वातावरण को संशोधित भी करती है। घर बनाने से लेकर फसल उगाने तक हमारी ज़िंदगी के लगभग हर काम में मिट्टी कहीं न कहीं ज़रूर होती है। किसी भी क्षेत्र में कौन सी फसल अच्छी तरह से हो सकती है ये बात बहुत हद तक उस क्षेत्र की मिट्टी पर निर्भर करती है। इकोसिस्टम में मिट्टी पौधे की वृद्धि के लिए एक माध्यम के रूप में काम करती है। यहां हम आपको बताएंगे कि देश के कौन से क्षेत्र में कौन सी मिट्टी होती है और उसमें कौन सी फसलें उगाई जा सकती हैं।

    काली मिट्टी:

    काली मिट्टी बेसाल्ट चट्टानों (ज्वालामुखीय चट्टानें) के टूटने और इसके लावा के बहने से बनती है। इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी और कपास की मिट्टी भी कहा जाता है। इसमें लाइम, आयरन, मैग्नेशियम और पोटाश होते हैं लेकिन फॉस्फोरस, नाइट्रोजन और कार्बनिक पदार्थ इसमें कम होते हैं। इस मिट्टी का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) के कारण होता है। यह मिट्टी डेक्कन लावा के रास्ते में पड़ने वाले क्षेत्रों जैसे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में होती है। गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा और ताप्ती नदियों के किनारों पर यह मिट्टी पाई जाती है।


    काली मिट्टी में होने वाली फसलें इस मिट्टी में होने वाली मुख्य फसल -: कपास है लेकिन इसके अलावा गन्ना, गेहूं, ज्वार, सूरजमुखी, अनाज की फसलें, चावल, खट्टे फल, सब्ज़ियां, तंबाखू, मूंगफली, अलसी, बाजरा व तिलहनी फसलें होती हैं।

    लाल और पीली मिट्टी:
    ये मिट्टी ये दक्षिणी पठार की पुरानी मेटामार्फिक चट्टानों के टूटने से बनती है। भारत में यह मिट्टी छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी पश्चिम जिलों, मेघालय की गारो खासी और जयंतिया के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैंड, राजस्थान में अरावली के पूर्वी क्षेत्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में पाई जाती है। यह मिट्टी कुछ रेतीली होती है और इसमें अम्ल और पोटाश की मात्रा अधिक होती है जबकि इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और ह्यूमस की कमी होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है, लेकिन जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई देती है।

    लाल और पीली मिट्टी में होने वाली फसलें -:चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, मूंगफली, रागी, आलू, तिलहनी व दलहनी फसलें, बाजरा, आम, संतरा जैसे खट्टे फल व कुछ सब्ज़ियों की खेती अच्छी सिंचाई व्यवस्था करके उगाई जा सकती हैं।

    लैटेराइट मिट्टी:
    लैटेराइट मिट्टी पहाड़ियों और ऊंची चट्टानों की चोटी पर बनती है। मानसूनी जलवायु के शुष्क और नम होने का जो परिवर्तन होता है उससे इस मिट्टी को बनने में मदद मिलती है। मिट्टी में अम्ल और आयरन ज़्यादा होता है और ह्यूमस, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, कैल्शियम की कमी होती है। इस मिट्टी को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट और भूमिगत जलवायी लैटेराइट में बांटा जाता है। लैटेराइट मिट्टी तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा और असम में पाई जाती है।

    लैटेराइट मिट्टी में होने वाली फसलें -: लैटेराइट मिट्टी ज़्यादा उपजाऊ नहीं होती है लेकिन कपास, चावल, गेहूं, दलहन, चाय, कॉफी, रबड़, नारियल और काजू की खेती इस मिट्टी में होती है। इस मिट्टी में आयरन की अधिकता होती है इसलिए ईंट बनाने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।

    March 26, 2021
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    अदल-बदल कर लगाएं फसल तो कीड़े नहीं कर पाएंगे नुकसान

    मौसम दर मौसम फसलों में बदलाव करके कीटों से निपटा जा सकता है| साथ ही यह मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार कर सकता है!
    दुनियाभर में फसलों पर तेजी से कीड़ों का हमला बढ़ता जा रहा है। अभी हाल ही में राजस्थान और गुजरात में टिड्डी दल के हमले ने भारी मात्रा में फसलों को नुकसान पहुंचाया था। वहीं, अफ्रीका के कई देशों में आर्मीवॉर्म ने खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया था। पर वैज्ञानिकों ने उससे निपटने का एक रास्ता ढूंढ लिया है। उन्होंने एक नए शोध में कम्प्यूटेशनल मॉडल प्रस्तुत किया है। जिससे पता चला है कि क्रॉप रोटेशन के पैटर्न में बदलाव करके कीटों के खतरे से निपटा जा सकता है। साथ ही लम्बी अवधि के दौरान कीड़ों के हमले के समय भी एक अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है।
    क्रॉप रोटेशन के लाभ:
    यह तकनीक हजारों सालों से इस्तेमाल की जा रही है। इससे पहले के अध्ययन भी बताते है कि क्रॉप रोटेशन करके कीड़ों को नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही, यह मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार कर सकता है और पोषक तत्वों की कमी को पूरा कर सकता है। यह कीटनाशकों और उर्वरकों की आवश्यकता को कम कर देता है। अन्य शोध बताते हैं कि कीटों के विकास में मदद करने वाले पर्यावरण में बदलाव करके इनके विकास और वृद्धि को सीमित किया जा सकता है, क्योंकि एक ही तरह की फसलें इनके विकास में मददगार होती हैं।

    March 26, 2021
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    गन्ने की फसल चक्र

    एक निश्चित भू-भाग पर निश्चित समय में भूमि की उर्वरता को बिना क्षति पहुंचाये, कम से कम व्यय करके क्रमबद्ध फसलें उगाकर अधिकतम लाभ अर्जित करने की प्रक्रिया को फसल चक्र कहते हैं।
    आदर्श फसल-चक्र वह है जो परिवार के सदस्यों एवं क्षेत्र के श्रमिकों को रोजगार के अधिकतम अवसर प्रदान कर सके तथा कृषि यंत्रों के आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद उपभोग के साथ ही कम से कम समय में अधिकतम उत्पादन सुनिश्चित कर सके।

    गन्ने फसल के लिए खेत की तैयारी:-

    दोमट भूमि जिसमें गन्ने की खेती सामान्यत: की जाती है, में 12 से 15 प्रतिशत मृदा नमी अच्छे जमाव के लिये उपयुक्त है। यदि मृदा नमी में कमी हो तो इसे बुवाई से पूर्व पलेवा करके पूरा किया जा सकता है। ओट आने पर मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई तथा 2-3 उथली जुताइयॉं करके खेत में पाटा लगा देना चाहिये। खेत में हरी खाद देने की ​स्थिति में खाद को सड़ने के लिये पर्याप्त समय (लगभग एक से डेढ़ माह) देना चाहिये।

    बीज चयन : रोग एवं कीट मुक्त गन्ना का चयन करें। गन्ना के उपरी भाग का जमाव बेहतर होता है।

    गन्ने की बुवाई की विधियॉं:-

    समतल विधि-

    इस विधि में 90 से०मी० के अन्तराल पर 7-10 सें०मी० गहरे कुंड डेल्टा हल से बनाकर गन्ना बोया जाता है। वस्तुतः यह विधि साधारण मृदा परिस्थितियों में उन कृषकों के लिये उपयुक्त हैं जिनके पास सिंचाई, खाद तथा श्रम के साधन सामान्य हों। बुवाई के उपरान्त एक भारी पाटा लगाना चाहिये।

    नाली विधि-

    इस विधि में बुवाई के एक या डेढ़ माह पूर्व 90 से०मी० के अन्तराल पर लगभग 20-25 से०मी० गहरी नालियॉं बना ली जाती हैं। इस प्रकार तैयार नाली में गोबर की खाद डालकर सिंचाई व गुड़ाई करके मिट्‌टी को अच्छी प्रकार तैयार कर लिया जाता है। जमाव के उपरान्त फसल के क्रमिक बढ वार के साथ मेड की मिट्‌टी नाली में पौधे की जड पर गिराते हैं जिससे अन्ततः नाली के स्थान पर मेड तथा मेड के स्थान पर नाली बन जाती हैं जो सिंचाई नाली के साथ-साथ वर्षाकाल में जल निकास का कार्य करती है। यह विधि दोमट भूमि तथा भरपूर निवेश-उपलब्धता के लिये उपयुक्त है। इस विधि से अपेक्षाकृत उपज होती है, परन्तु श्रम अधिक लगता है।

    दोहरी पंक्ति विधि-

    इस विधि में 90-30-90 से०मी० के अन्तराल पर अच्छी प्रकार तैयार खेत में लगभग 10से०मी० गहरे कूंड बना लिये जाते हैं। यह विधि भरपूर खाद पानी की उपलब्धता में अधिक उपजाऊ भूमि के लिये उपयुक्त है। इस विधि से गन्ने की अधिक उपज प्राप्त होती है-

    March 22, 2021
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    चावल की खेती

    धान दुनिया का प्रमुख खाद्य फसल है, किसी भी अन्य अनाज की तुलना में चावल सबसे अधिक खाई जाती है। भारत में भी चावल खासतौर पर भारत के दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों के लोगों का मुख्य भोजन है। 
    धान की फसल के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है इसके पौधों को जीवनकाल में औसतन 20 डिग्री सेंटीग्रेट से 37 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान तथा अधिक आर्द्रता के साथ अधिक पानी की आवश्यकता होती है। इसके अलावा धान की खेती के लिए मटियार और दोमट भूमि उपयुक्त मानी जाती है। धान की फसल को पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती हैं। इस कारण इसकी खेती अधिक जल धारण क्षमता वाली मिट्टी में की जाती है। धान की खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान भी ज्यादा नहीं होनी चाहिए। धान को खेत में बीज के रूप में ना लगाकर पौधे के रूप में लगाया जाता है। श्रम के हिसाब से देखा जाए तो धान की खेती अधिक मेहनत वाली फसल है।

    बीज का चयन:-

    धान की खेती में बीज चयन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खेती के लिए चुने गए बीज समान आकार, आयु और खरपतवार मुक्त होने चाहिए। उनमें अंकुरण क्षमता भी अच्छी होनी चाहिए।किसान को हमेशा स्वस्थ पौध उगाने के लिए उत्तम गुणवत्ता वाले बीजों का ही चयन करना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण बीज का चयन करते समय निम्नलिखित चरणों का पालन करने की आवश्यकता है। चयनित बीज साफ और अन्य बीज के मिश्रण से मुक्त होना चाहिए।

    March 20, 2021
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    Rashtriya Kisan Manch
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    ग्राम

    सितम्बर माह में उगाई जाने वाली सब्जिया

    1) शिमला मिर्च
    सितम्बर माह शुरू होने से पहले ही शिमला मिर्च की नर्सरी तैयार कर ली जाती है और समय से इसको लगाना शुरू कर दें चाहिए। इसके बीज भी उत्तम कोटि के होने चाहिए और रोग रोधी हो। बीज लगाते समय ध्यान रखें कि बीज लगाने के बाद जब दोबारा उसका रोपण करे तो उस समय उसकी जड़ को शोधन ज़रूर करें। शिमला मिर्च का बीज जब भी लगाए तो कोशिश करे की २-३ दिन पहले भूमि का भी शोधन कर ले और सही तरीके से जुताई कर ले । इससे आप का उत्पादन काफी बेहतर होगा और आप को अच्छा भाव भी मिलेगा।

    2) पत्तागोभी
    पत्तागोभी भी एक ऐसी सब्जी है जिसकी सितम्बर माह में नर्सरी तैयार की जा सकती है । पत्ता गोभी में वैसे तो ज्यादा रोग लगने की संभावना नहीं होती परन्तु पत्ता गोभी में गलने की व कीट की समस्या हो सकती है और इन समस्याओं को दूर करने के लिए आप ऑर्गेनिक तरीकों का प्रयोग कर सकते है।

    3) धनिया पत्ता
    धनिया को भी सितंबर महीने में लगाया जाता है बारिश के कारण धनिया में अंकुरण की समस्या हो सकती है। धनिया उगाने के लिए खेत ऊंचाई पर होना चाहिए ताकि पानी ना लग सके तथा धनिया को क्यारियों में लगाया जाता है, ताकि निकासी व्यवस्था भी की जा सकें। धनिया में सीमित मात्रा में केमिकल का प्रयोग करें। अगर अधिक केमिकल का प्रयोग किया जाएगा तो फसल खराब या फिर फसल को नुकसान हो सकता है।

    4) फूलगोभी
    सर्दियों में खायी जाने वाली सब्जियों में से सर्व पसंदीदा सब्जी फूल गोभी है, जिसे सितम्बर माह में उगाया जाता है। फूलगोभी को उगाने से पहले उन्नत और उत्तम किस्म के बीज का चयन कर लेना चाहिए, इसके दो फायदे है एक तो फसल की उपज अच्छी रहेगी, दूसरा फसल में ज्यादा रोग नहीं लगेंगे
    फूलगोभी की फसल में न केवल पौधे को बल्कि भूमि को भी शोधित करना आवश्यक है, इसके लिए जैविक (आर्गेनिक) कीटनाशक बनाए और उसका छिड़काव करें। जिससे आप अच्छा लाभ ले सकें।

    5) बैंगन
    बैंगन की खेती करना बेहद आसान हैं। इसके लिए सही बीजों का चयन करना काफी आवश्यक होता है। कई लोगों ने नर्सरी भी लगा ली है तथा इसकी जड़ का सही तरीके से शोधन करना काफी आवश्यक है। ऑर्गेनिक कीटनाशक के प्रयोग से काफी हद तक फसल को रोग से बचाया जा सकता है।

    6) बैंगन
    पालक साग आदि सब्जियों की खेती भी सितंबर महीने में की जाती हैं। पालक की बुवाई करते समय ध्यान रखें उसमें जल निकासी की व्यवस्था हो। पालक से भी काफी आमदनी हो सकती है बशर्ते बारिश से पालक को बचाया जा सके।

    7) पपीता
    सितंबर में उगाई जाने वाली सब्जियां में एक पपीता भी हैं।पपीता में वायरस की समस्या हो सकती है लेकिन इसको नीम का तेल प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है। पपीता लगाते समय एक-एक पपीते के बीच की दूरी का ध्यान जरूर रखें और यदि पपीता बेड पर लगाते हो काफी अच्छी फसल देखने को मिल सकती है।
    8) हरी मिर्च
    हरी मिर्च की फसल के लिए दो बाते आवश्यक है, पहली ये की हरी मिर्च का बीज रोग रोधी हो और बीज की बुआई करें तो पानी निकासी का इंतजाम पहले ही ज़रूर कर लें। हरी मिर्च की नर्सरी डालने के बाद जब रिप्लांट करें तो पहले भूमि शोधन अवश्य करें और खाद का बहुत ही सीमित मात्रा में प्रयोग करें नहीं तो आपको नुकसान भी सहना पड़ सकता हैं।
    9) मूली
    मूली को बोने के लिए अगर ऊंचाई वाला खेत है तो काफी बढ़िया है और यदि खेत ऊंचाई पर नहीं है तो इसे बेड पर भी लगा सकते हो। खेत की अच्छे ढंग से जुताई होनी चाहिए। जितनी अच्छी भुरभुरी मिट्टी होगी उतनी ही अच्छी आपको पैदावार मिलेगी।

    10) ब्रोकली
    ब्रोकली सब्जी ह्रदय के लिए बहुत ही फायदेमंद सब्जी है, इसकी गुणवत्ता के कारण इसका भाव १०० रूपए से लेकर २०० रूपए किलो तक रहता है। ब्रोकोली उगाने के लिए उसके बीज से नर्सरी डाल लीजिए और उसके बाद उस की रोपाई शुरू करें।

    11) मटर
    मैदानी भागों में तो मटर को अक्टूबर महीने में बोया जाता है लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में मटर की बुआई सितंबर महीने में शुरू हो जाती है। बीज लाने के बाद इसको शोधन करना काफी आवश्यक है इसमें जर्मीनेशन का ध्यान रखेंगे तो फसल भी अच्छी होगी और आपको काफी ज्यादा लाभ भी देखने को मिलेगा।
    12) गाजर/चुकंदर/शलगम
    पहाड़ी इलाकों में गाजर चुकंदर व शलगम की खेती सितंबर महीने में कर सकते है, इसके लिए खेत को अच्छे ढंग से तैयार कीजिये ताकि फसल को किसी भी तरह का नुकसान ना हो। चुकंदर शलगम गाजर इन तीनों में ही लागत काफी कम लगती है और फायदा अधिक होता है।

    August 26, 2021
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    अलसी की उन्नतशील फसल

    अलसी एक तिलहनी और रेशे वाली फसल है जिसका उत्पादन मुख्य रूप से २ कारणों से किया जाता है, पहला तेल के लिए और दूसरा रेशे के लिए I अलसी के तेल का उपयोग खाने के, औषधीय और औधोगिक उपयोग के लिए किया जाता है I इसकी खली पोषक तत्वों से पूर्ण होती है जिसे पशुओ को खिलाने और खेतो में उर्वरक के रूप में भी किया जाता है I भारत में अलसी की खेती मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में की जाती है I
    खेत की तैयारी - खरीफ की फसल काटने के बाद मिटटी को अलट पलट करने के लिए एक जुताई करे, तत्पश्चात कल्टीवेटर या देशी हल से 2 बार जुताई करके खेत को अच्छी तरह तैयार करे I अलसी की खेती के लिए मटियार व् चिकनी दोमट भूमि में की जा सकती है I
    बुवाई का समय एवं विधि - अक्टूबर माह के किसी भी समय अलसी को बोया जा सकता है I इसका बीज २५-३० कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर कि दर से बोया जाता है I इसकी बुवाई में बीजो के बीच कम से कम २५ से.मि का अंतराल होना चाहिए I
    उर्वरक - असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी पैदावार के लिए नाइट्रोजन 50 कि. ग्रा., फॉस्फोरस 40 कि. ग्रा.तथा पोटाश 40 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर इस्तेमाल कीजिये और सिंचित क्षेत्र के लिए नाइट्रोजन 100 कि. ग्रा., फॉस्फोरस 60 कि. ग्रा.तथा पोटाश 40 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर इस्तेमाल करना चाहिए I
    सिंचाई - यह फसल असिंचित रूप से बोई जाती है, परन्तु जहा सिंचाई का साधन उपलब्ध है वह दो सिंचाई ही काफी है क्योंकि यह फसल कम पानी से भी अच्छी पैदावार देती है I पहली सिंचाई फूल आने पर या बुवाई से 30-40 दिन बाद तथा दूसरी दाना बनते समय करनी चाहिए I
    फसल का बचाव - असली की फसल में कई प्रकार के रोग और कीट लग जाते है, जैसे अल्टेरनेरिया झुलसा, रतुआ, उकठा रोग, बुकनी गालमीज, ग्रेसी कटवर्म प्रमुख है I गर्मी की जुताई से गालमीज की सूड़िया मर जाती है, बीज को 2.5 ग्रा. थाइरम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से शोधित करके प्रयोग में ले, अलसी के साथ चना, सरसो, कुसुम को साथ बोया जाए तो गालमीज का प्रकोप कम हो जाता है I कालिया बनने लगे तब समय समय पर फसल का परिक्षण करते रहना चाहिए I खडी फसल में मेंकोजेब 2.5 कि.ग्रा. / हेक्टेयर कि दर से 40-45 दिन पर छिड़काव करके इन रोगो से बचा जा सकता है I
    अलसी की कटाई - फसल जब 130-140 दिन कि परिपक्वा हो जाती है, पौधे और फलिया पीली होने लगती है और पत्तिया सूखने लगती है तब समझना चाहिए कि फसल की कटाई का समय आ गया है I यदि सही तकनीक से फसल कि कटाई की जाये तो लगभग 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज प्राप्त हो जाता है I

    July 17, 2021
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    मिट्टी की जांच या मृदा परीक्षण

    खेत की मिट्टी का सीधा प्रभाव फसल की पैदावार से होता है, गुणवत्तापूर्ण उपज और अधिक पैदावार के लिए मिट्टी में कौन कौन से तत्व होने चाहिए इसकी जानकारी होना जरूरी है। मिट्टी में लम्बे अरसे से रासायनिक पदार्थों और कीटनाशकों के प्रयोग होने के कारण खेत की मिट्टी की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है। किसी भी फसल से उन्नत उपज लेने के लिए ये जानना जरूरी हैं कि उसे जिस मिट्टी के लगाया जा रहा है. उसमें उसके विकास के लिए पोषक तत्व मौजूद हैं या नही। मृदा परीक्षण यानि मिट्टी की जांच करा कर किसान अपने खेत की मिट्टी की सही सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी की जांच में भूमि के अम्लीय और क्षारीय गुणों की जांच की जाती है, ताकि पीएच मान के आधार पर उचित फसल को उगाया जा सके. और भूमि सुधार किया जा सके। मिट्टी की जाँच से किसान भाई अपने खेत की मिट्टी की गुणवत्ता जानकार उसमे उसी के उपयुक्त फसल लगा कर कम खर्च में अधिक उपज प्राप्त कर सकते है।
    मिट्टी की जांच क्यों आवश्यक है
    मिट्टी की जांच कराने के बाद मिट्टी में मौजूद कमियों को सुधारकर उसे फिर से उपजाऊ बनाने के लिए। मिट्टी परिक्षण करवाकर उर्वरकों और रसायनों पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बच सकता है। जैविक खेती करने वाले किसान भाई मिट्टी की जांच कराकर मिट्टी के जैविक गुणों का पता लगा सकते हैं. और उसी के आधार पर जैविक पोषक तत्वों का इस्तेमाल पूरी तरह से जैविक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। मिट्टी में कई पोषक तत्व होते हैं जैसे कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश , कैल्सिशयम, मैग्नीशियम और सूक्ष्म तत्वों जैसे जस्ता , मैग्नीज, तांबा, लौह, बोरोन, मोलिबडेनम और क्लोरीन इत्यादि अगर इन सबकी मौजूदगी मिट्टी में संतुलित रूप में रहती है तो इससे अच्छी पैदावार प्राप्त होती है। मिट्टी में इन तत्वों की कमी के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम होने लगती है।
    मिट्टी जांच के फायदे
    सघन खेती के कारण खेत की मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी समय समय पर मिलती रहती है। मिट्टी में विभिन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता की दशा का ज्ञान हो जाता है। बोयी जाने वाली फसल के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। संतुलित उर्वरक प्रबन्ध द्वारा अधिक लाभ कमा सकते है।
    मिट्टी जांच कब करानी चाहिए
    मिट्टी की जांच के समय ध्यान देना चाहिए की भूमि में नमी की मात्रा कम से कम हो। फसल की बुवाई या रोपाई से एक महीना पहले खेत की मिट्टी की जांच कराएं। अगर आप सघन पद्धति से खेती करते हैं तो हर वर्ष मिट्टी की जांच करवानी चाहिए। यदि खेत में वर्ष में एक फसल की खेती की जाती है तो हर 2 या 3 साल में मिट्टी की जांच करा लें।
    मिट्टी की जांच कैसे करे
    एक एकड़ क्षेत्र में लगभग 8-10 स्थानों से ‘V’ आकार के 6 इंच गहरे गहरे गढ्ढे बनायें। एक खेत के सभी स्थानों से प्राप्त मिट्टी को एक साथ मिलाकर ½ किलोग्राम का एक नमूना बनायें। नमूने की मिट्टी से कंकड़, घास इत्यादि अलग करें। सूखे हुए नमूने को कपड़े की थैली में भरकर कृषक का नाम, पता, खसरा संख्या, मोबाइल नम्बर, आधार संख्या, उगाई जाने वाली फसलों आदि का ब्यौरा दें। नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें अथवा’ ‘परख’ मृदा परीक्षण किट द्वारा स्वयं परीक्षण करें।

    July 16, 2021
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    ग्राम तकनीक

    तवैदार हैरो

    इस यंत्र के उपयोग से बीज के अच्छे अंकुरण के लिए भूमि में सुधार, कीटों एवं इनके रहने के स्थानों को आसानी से नष्ट किया जा सकता है। यह घास-फूस तथा खरपतवपार वाली भूमि के लिए अत्यंत उपयोगी यंत्र है। गेहूं की बुवाई के लिए खेत तैयार करने में इस यंत्र का उपयोग अत्यंत ही लाभदायक है। इसकी कार्यक्षमता एक दिन में 4 से 5 हैक्टेयर है।

    April 15, 2021
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    गेहूं के कटाई के लिए उपकरण

    किसान और सरकार चाहते हैं कि देशभर में फसलों की पैदावार और उनकी गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी हो, क्योंकि इससे किसान और सरकार, दोनों को लाभ होगा !मगर यह तभी संभव हो पाएगा, जब फसल उत्पादन का काम कम लागत में संपन्न हो!इसका एक मात्र विकल्प यह है कि आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग किया जाए, ताकि समय, श्रम और लागत की बचत हो पाए ! इससे किसानों को अच्छा मुनाफा भी मिल सकेगा! ऐसे में आज हम ऐसे आधुनिक 2 कृषि यंत्रों के बारे में बताएंगे, जो कि गेहूं की कटाई को आसान बना देते हैं!

    ट्रैक्टर चलित रीपर बाइंडर:

    यह मशीन किसानों के लिए बहुत उपयोगी है! इसमें भी कटर बार से पौधे कटे जाते हैं फिर पुलों में बंध  जाते हैं! इसके बाद संचरण प्रणाली द्वारा एक और गिरा दिया जाता है !खास बात यह है कि इस मशीन की मदद से कटाई और बंधाई का कार्य बहुत सफाई से होता है!

    स्वचालित वर्टिकल कनवेयर रीपर:

    छोटे और मध्यम किसानों के लिए गेहूं की कटाई करने के लिए यह बहुत उपयोगी मशीन है! इस मशीन में आगे की ओर एक कट्टर बार लगी होती है, तो वहीं पीछे संचरण प्रणाली लगी होती हैं!इसके साथ ही रीपर में लगभग 5 हॉर्स पावर का एक डीजल इंजन लगा होता है, जो कि पहियों और कटर बार के लिए शक्ति संचरण का कार्य करता है

    कैसे करते हैं गेहूं की कटाई:

    किसान को फसल कटाई के लिए कटर बार को आगे रखकर हैंडिल से पकडक़र पीछे चलना होता है. कटर बार गेहूं के पौधों को काटती हैं. इसके साथ ही संचरण प्रणाली द्वारा पौधे एक लाइन में बिछा दिए जाते हैं, जिनको श्रमिकों द्वारा इकट्ठा कर लिया जाता है.

    March 26, 2021
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    मोटर संचालित क्राप कटर मशीन

    कृषि में जहाँ किसान पहले वर्ष में एक या दो फसल ले पाते थे वही अब कृषि यंत्रों की मदद से कम समय में कृषि कार्यों को पूर्ण करके तीन फसलें लेने लगे हैं | कृषि यंत्र से जहाँ कम समय में कार्य पूर्ण हो जाते हैं वही इससे फसल उत्पदान की लागत भी कम होती है खासकर छोटे कृषि यंत्रों से | भारत में छोटे एवं मध्यवर्गीय किसानों के लिए छोटे कृषि यंत्रों को विकसित किया जा रहा है | सरकार द्वारा इनके उपयोग को बढ़ावा भी दिया जा रहा है जिसके लिए सरकार द्वारा इन कृषि यंत्रों पर सब्सिडी भी दी जाती है | छोटे किसानों के बीच इन छोटे कृषि उपकरणों को लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है, जिससे कृषि श्रमिकों और किराए की मशीनों पर उनकी निर्भरता कम की जा सके | किसान समाधान गेहूं कटाई के समय को देखते हुए कटाई के लिए उपयुक्त मोटर संचालित क्रॉप कटर की जानकारी लेकर आया है |

    मोटर संचालित क्राप कटर:

    क्राप कटर मशीन पके हुए गेहूं को जमीन से लगभग 15 से 20 से.मी. की ऊँचाई से काट सकती है | क्रॉप कटर से काटने की चोडाई 255 सेमी तक होती है वहीँ इसमें 48 से 50 सीसी की शक्ति से चल सकती है | इसका बजन 8 किलो से लेकर 10 किलोग्राम तक होता है | यह पेट्रोल से चलने वाला यंत्र है जिसमें एक बार में 1.2 लीटर पेट्रोल तक भरा जा सकता है | मशीन में एक गोलाकार आरा ब्लेड, विंडरोइंग सिस्टम, सेफ्टी कवर, कवर के साथ ड्राइव शाफ़्ट, हैंडल, ऑपरेटर के लिए हैगिंग बैंड पेट्रोल टैंक, स्टार्टर नांब , चोक लीवर और एयर क्लीनर होते हैं | ब्लेड, इंजन द्वारा संचालित एक लंबी ड्राइव शाफ़्ट के माध्यम से घूमता है | 25 से.मी. की ऊँचाई और 12 से.मी. के ब्लेड त्रिज्या के बराबर आधे बेलन के आकार की एक एलुमिनियम शीट को काटने वाले ब्लेड के उपरी भाग में फिट किया जाता है | फसलों को इकट्ठा करने में आसानी के लिए एक समान पंक्ति बनाने के लिए एक गार्ड लगाया जाता है |

    क्राप कटर मशीन में ब्लेड का उपयोग फसल के अनुसार करें :

    मोटर संचालित क्राप कटर मशीन में ब्लेड का उपयोग फसल के पौधे के अनुसार किया जा सकता है | ज्यादा दांत वाले ब्लेड का उपयोग मोटे तथा कड़क पौधे की कटाई के लिए किया जाता है तथा कम दांत वाले ब्लेड का उपयोग मुलायम तथा पतले पौधे के लिए किया जाता है |

    दांतों की संख्या तथा उसका उपयोग :

    120 दांत वाले ब्लेड का उपयोग – 120 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग गेहूं, मक्का आदि फसलों की कटाई के लिए किया जाता है | 60 और 80 दंतों वाले ब्लेड का उपयोग – 60 तथा 80 दानों वाले ब्लेड का उपयोग चारा काटने के लिए किया जाता है | 40 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग – 40 दांतों वाले ब्लेड का उपयोग 2 इंच मोती वाले पौधे को काटने के लिए किया जाता है |

    March 26, 2021
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